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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ उ. ३ सू० ५० शय्येषणाध्ययननिरूपणम् मूलम्-से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण संथारगं जाणिज्जा, अप्पंडं जाव संताणगं लहुयं अपाडिहारियं तहप्पगारं सेज्जासंथारगं लाभे संते णो पडिगाहिजा ॥सू० ५०॥ छाया-स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वास यत् पुनः संस्तारकं जानीयात्-अल्पाण्डं यावत् सन्तानकं लघुकम् अप्रतिहारकं तथाप्रकारकम् शय्यासंस्तारकं लाभे सति नो प्रतिगृह्णीयान् ॥ ० ५०॥ टीका-पुनरपि फटकपट्टप्रमृति संस्तारकविशेष निषेधितुमाह-से भिक्खू वा भिक्खुणी या' स पूर्वोक्त भिक्षुर्वा भिक्षुकी या 'से जं पुण संथारगं जाणिज्जा' स यत् पुनः वक्ष्यमाणस्वरूपं संस्तारकम् फलकादिकं जानीयात् तद्यथा 'अप्पंड जाव संताणग' अल्पाण्डम्अण्डरहितम् यावत्-प्राणिजीवजन्तुरहितम् उत्तिापनकलूतातन्तुजालरूपसन्तानर हितम् एवं 'लहुयं अप्पडिहारियं' लघुकम्-गुरुत्वरहितं संस्तारकं वर्तते किन्तु अप्रतिहारकम्-प्रत्यर्पण. से 'लामे संते णो पडिगाहिज्जा' मिलने पर भी साधु और साध्वी उस संस्तारक को नहीं ग्रहण करें क्योंकि इस प्रकार के अत्यंत भारी तथा अत्यन्त विशाल फलकादि संस्तारक को उठाने बैठाने लाने ले जाने में अत्यंत आयास क्लेश के कारण हाथ पाद वगैरह का टूट जाने का भी भय रहता है और ऐसी परिस्थिति में संयम विराधना होगी इसलिये उसे ग्रहण नहीं करें ॥४९॥ फिर भी फलक पाट वगैरह संस्तारक विशेष को निषेध करते हैं टीकार्थ-'से भिक्खू वा भिक्खूणी वा से जं पुण संथारयं एवं जाणिज्जा' वह पूर्वोक्त भिक्षुक संयमशील साघु और भिक्षुकी साध्वी यदि संस्तारक फलकादि शय्या को ऐसा वक्ष्यमाण रूपसे जान ले या देख ले कि यदि यह फलक पाट वगैरह संस्तारक-'अप्पंडं जाव संताणगं'-अल्पाण्ड अण्डों से रहित है एवं यावत् अल्प प्राणी जीवों से रहित घासों से उत्तिङ्ग ऊल पनक फनगा वगैरह जीव जन्तु से भी रहित है एवं मकडे के जाल संतान परंम्परा से रहित है एवं ફલકાદિ સંસ્તારકને ઉપાડવા કે લાવવા લઈ જવામાં ઘણે પ્રયાસ અને કલેશના કારણે હાથ પગ વિગેરેને ઈજા થવાને પણ ભય રહે છે અને તે સ્થિતિમાં સંયમની વિરાધના થાય છે. તેથી તેને સ્વીકારવા નહીં. જે ૪૯ હવે પ્રકારાન્તરથી ફલક પાટ વિગેરે સંસ્કારક વિશેષનો નિષેધ કરે છે. टी-से भिक्ख वा भिक्खुणी वा' ते पूरित सयभशी साधु भने साथी से जं पुण संथारय एवं जाणिज्जा' ले सता२४- ५१४६ च्याने २॥ पक्ष्यमा प्रारथी ong से २५१२ नवे- ५१४ पाट विगेरे सस्ता२४ 'अप्पंडं जाव संताणगं' सपा અર્થાત્ ઈડાએથી રહિત છે. એવું યાવત્ અલ્પ પ્રાણ અને અલ્પ જીવોથી રહિત છે. તથા બીજોથી અને લીલા ઘાસ ઉસિંગ ઉલ—પનક-ફનગા વિગેરે જીવંજતુઓથી પણ श्री मायाग सूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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