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________________ ४५८ आचारांगसूत्रे यइपुत्तो वा' गृहपतिपुत्रो वा 'गाहावइधए वा' गृहपतिदुहिता या गृहस्थकन्या 'गाहापइ मुण्हा या' गृहपतिरनुषा वा गृहस्थपुत्र धू: 'धाई वा धात्री वा 'जाव कम्मकरीओ या' यावद् दासो वा दासी वा कर्मकरो वा धर्मकयों वा परिचारिकाः 'णिगिणाठिओ' नग्नाः स्थिताः 'णिगिणा उल्लीणा मेहुणधम्मं विष्णवेंनि' नग्नाः उपलीनाः प्रच्छन्नाः सत्यः मैथुनधर्मम् विषयभोगविषयकवर्णनं विज्ञापयन्ति कुर्वन्ति 'रहस्सियं या मंतं मते नि' रहस्यं वा मन्त्रं मन्त्रयन्ति रहस्यविषयक मन्त्रणां कुर्वन्ति तस्मात् 'णो पण्णस्स णिक्खपमणपवेसणाए जावऽणु चिंताए' नो प्राज्ञस्य संयमशीलस्य साधोः निष्क्रमणप्रवेशनाय निर्गन्तुं प्रवेष्टुं वा स उपाश्रयः कल्पते यावत् अनुचिन्तायै स्वाध्यायानुचिन्तनार्थमपि स उपाश्रयो न कल्पते इति ऐसा वक्ष्यमाण रूप से उपाश्रय को जान लेकि इस उपाश्रय के निकटवर्ती गृहस्थ श्रावक अथवा श्राविका गृहपति की भगिनी-बहन या गृहपति का पुत्र या गृहपति की दुहिता कन्या अथवा गृहपति की स्नुषा-पुत्रवधू या धात्री-धाई-परिचारिका बच्चों को देख भाल करने वाली उपमाता और दास-सेवक तथा यावत्-दासी-सेविका या कर्मकर-नोकर-या कर्मकरी-नोकरानी वगैरह 'णिगिणा ठिआ,' नग्ना नङ्गी खडी है या 'णिगिणा उबलीणा मेहुणधम्मं विण्णवें ति' नगी ही छिपकर मैथुनधर्म विषयभोग को बतला रही है अर्थातू रति भोग का वर्णन कर रही है अथवा-'रहस्सयं वा मंतं मंति' रहस्य एकान्त में मंत्रणा कर रही है अर्थात् एकान्त में विषय भोगविलास विषय की बात कर रही है इसलिये 'णो पण्णस्स णिक्खमणपवेसणाए' प्राज्ञ संयमशील साधु को इस तरह के उपाश्रय में निष्क्रमण प्रवेश करना नहीं चाहिये और 'जाव अणुचिताए' यावत् स्वाध्याय का अनुचिन्तन मनन भी नहीं करना चाहिये कयोंकि इस उपाश्रय के निकटवती गृहस्थ के घरमें गृहपति वगैरह या गृहपति की भार्या वगैरह नग्न होकर विषय भोग की चर्चा या मंत्रणा कर रहे हैं इस लिये –'तहप्पगारे उवस्सए णो ठाणं या' इस प्रकार के उपाश्रय में स्थान वा' गृहस्थनी पुत्र५५ ५५ 'धाई वा' या 'दासो वा' हास भार 'जाव कम्मकरीओ या' यापत् हासी भ७२ अथ। भ विगेरे 'णिगिणाठिया' न ४ मेस छ. अथवा 'णिगिणा उल्लीणा मेहुणधम्म विण्णवेति' न अवस्थामा ॥ छुपाईन भैथु४ धर्म-विषय सेवननु वन ४३॥ २३८ छ. अशा 'रहस्सियं वा मंतं मंते ति' मेन्तमा મસલત કરી રહેલ છે અર્થાત્ એકાન્તમાં ભેગ વિલાસ વિષય સંબંધી વાત કરી રહેલ छ. तभी तो णो पण्णस्स णिक्खमणपबेसणाप' प्राश-सयमशीला साधु साध्यास આવા ઉપાશ્રયમાં નિષ્ક્રમણ કે પ્રવેશ કરે નહીં એટલે કે આવવું જવું નહીં તથા 'जाव अणुचिंताए' यावत् २५च्यायनु अनुतिन, मनन ५ ४२ नही २५ ઉપાશ્રયની નજદીક ગૃહરથના ઘરમાં ગૃહરથ વિગેરે કે ગૃહસ્થ પનિ વિગેરે નગ્નાવસ્થામાં श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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