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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंघ २ उ. ३ सू० ४४ शध्येपणाध्ययननिरूपणम् । वा 'अण्णमण्णस्स' अन्योन्यस्य परस्परस्य 'गायं सिणाणेण वा' गात्रं शरीरं शरीरावयवहस्तपादादिकं वा स्नानेन जलेन 'कक्केण वा कर्केण वा सुगन्धितद्रव्येण 'लोहेण वा लोध्रेण वा 'चुण्णेण वा' चूर्णन वा 'पउमेण वा' पद्मेन वा पद्मद्रव्येण 'आधंसंति या पघंसति या' आधर्षयन्ति वा मर्दयन्ति, प्रघर्षयन्ति वा प्रक्षालयन्ति 'उनलंति वा' उद्धलयन्ति वा मर्दन कुर्वन्ति 'उध्वहिति वा' उद्वर्तयन्ति वा उदवर्तनं कुर्वन्ति 'णो पण्णस्स णिक्खमणपसणाए' नो प्राज्ञस्य संयमशीलस्य साघोः निष्क्रमणप्रवेशनाय निर्गन्तुं प्रवेष्टुं वा स उपाश्रयः कल्पते 'जायऽणुचिताए' यावद अनुचिन्तायै स्वाध्यायानुचिन्तनार्थमपि स उपाश्रयो न कल्पते साधूना मिनिशेषः तदुपसंहरमाह-'तहप्पगारे उवस्सये' तथाप्रकारे एवंविधे उपर्युक्तरूपे गृहपति की स्नुषा-पुत्रवधू या धात्री-धाई परिचारिका, या दास सेवक यावत्दासी सेविका, या कर्मकर नोकर या कर्मकरी-नोकरानी 'अण्णमण्णस गायं' अन्योन्य परस्पर के गात्र शरीर को 'सिणाणेण वा' स्नानीय जलसे या'कक्केण या' या कर्क सुगन्धित द्रव्य से या 'लोहेण चा' लोधु से-'वण्णेण या' चूर्ण विशेष आमला वगैरह के 'चूण्णेण वा' चूर्ण से या 'पजमेण' पदे द्रव्य पाउडर से-'आघंसंति वा, पधंसंति चा' घर्षण करते हैं और अच्छी तरह प्रक्षालन करते हैं या-'उठ्यलंति या उच्चति वा' उदयलन-मर्दन करते हैं अथवा उद्वर्तन करते हैं मलते हैं इसलिये 'णो पण्णस्स णिक्खमणपवेसणाए जाव अणुचिंताए' प्राज्ञ-संयमशील साधुको इस तरह के शरीरादि में पाउडर साबुन वगैरह लगाते हुए गृहस्थ के घरके निकटवर्ती उपाश्रय में निष्क्रमण निकलने के लिये और प्रवेश करने लिये तथा यावत्-स्वाध्याय का मनन रूप अनुचिन्तन करने के लिये नहीं रहना चाहिये क्योंकि इस प्रकार के गृहस्थ गृह से संबद्ध उपाश्रय में रहने से उक्तरीति से गृहस्थादि शरीर को उद्वर्तन करते हुए देखकर संयम विराधना हो सकती है इसलिये 'तहप्पगारे उयस्सए' इस तरह के वा' हास 'जाव कम्मकरीओ वा' यावत् सी-सेपि। अगर अभ७२-२३२ या भर 30-3 'अण्णमण्णस्स गायं सिणाणेण या' मीना शरी। नापाना पाया अया 'ककेण वा' ई मेट सुगधित पाय थी अथवा लोदेण या' या अश्या 'यण्णेण वा' , A२ (कोरे पास पहायची अथवा 'चुण्गेण वा मामा वरना थी अथवा 'पउमेण वा' ५ द्रव्य अर्थात् पाउRथी 'आघसंति वा पधंसंति वा धसे छ भने प्रशासन ३२ छे. मया 'उव्वलंति या उबटुंति वा सन सेट भ रे छ भने तन रे थे. तेथी 'णो पण्णस्स णिक्खमणपसणाए' प्राश-संयमशle साधुमे આ પ્રકારે શરીરમાં સુગંધિત પદાર્થો લગાવનારા ગૃહસ્થના ઘરની નજદીકના ઉપાશ્રયમાંથી नी प्रवेश ४२५॥ भाट 'जाय अणुचिंताए' स्वाध्यायना मनन३५ मनुतिन १२५॥ માટે રહેવું નહી. કેમ કે-આવા પ્રકારનાં કે જેની નજીક ગૃહસ્થના ઘર આવેલ હોય એવા ઉપાશ્રયમાં રહેવાથી ઉક્ત પ્રકારે ગૃહસ્થ વિગેરેને ઉદ્વર્તન કરતા જોઈને સંયમની श्री माया सूत्र : ४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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