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________________ आचारांगसूत्रे लंति या उव्यटुंति वा णो पण्णस्स णिक्खमणपवेसणाए जावऽणुचिंताए तहप्पगारे उवस्सए णो ठाणं वा सेज्जं या जाव चेतेजा ॥सू० ४४॥ __छाया-स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा स यदि पुनः उपाश्रयं जानीयात्-इह खलु गृहपनि गृहपतिमा वा गृहपतिभगिनी वा गृहपतिपुत्रो वा गृहपतिदुहिता या गृहपति स्नुषा वा धात्री वा दासो वा यावत् कर्मकरी वा अन्योन्यस्य गात्रम् स्नानेन वा कर्केण वा लोण या चूर्णेन वा पद्मेन वा आघर्षयन्ति वा प्रघर्षयन्ति या उद्वलयन्ति वा उद्वर्तयन्ति वा नो प्राज्ञस्य निष्क्रमणप्रवेशनाय यायद् अनुचिन्नायै, तथाप्रकारे उपाश्रये नो स्थानं वा शय्या या यावत् चेतयेत् ॥सू० ४४॥ टीका-पुनरपि उपाश्रयविशेषे निवासप्रतिषेधम्- प्रतिपादयितुमाह-'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' स भिक्षुर्वा भिक्षुकी या-साधु वा साध्वी वा 'से जं पुण उक्स्सयं जाणिज्जा' स संयमवान् भिक्षुः यदि पुनरेवं वक्ष्यमाणस्वरूपम् उपाश्रयं जानीयात् तद्यथा-'इह खलु गाहावई वा' इह खलु उपाश्रयनिकटे गृहपति वा 'गाहावइभारिया वा' गृहपतिमा वा 'गाहावइभगिणि वा' गृहपति भगिनी वा 'गाहावइपुत्तो वा' गृहपतिपुत्रो वा 'गाहायधूप या' गृहपति दुहिता वा 'गाहावइ मुण्हा या' गृहपति स्नुषा वा गृहपति पुत्रवधूः 'धाईया' धात्री वा 'दासो वा' दासो वा 'जाव कम्मकरी वा' यावद् दासी वा कर्मकरो वा कर्मकरी फिर भी गृहस्थ के घरके निकटवर्ती उपाश्रय में साधु को नहीं रहना चाहिये यह दूसरे ढग से बतलाते हैं टीकार्थ-से भिक्खू वा, भिक्खुणी वा, से जं पुण उवस्सयं जाणिज्जा'-इह खलु गाहायइ या, गाहावइभारिया या, गाहायइ भगिणी वा, गाहावइ पुत्तो वा गाहायइ धूए वा, गाहावइसुण्हे वा, धाई चा दासा वा, जाय-कम्मकरीओ या' वह पूर्वोक्त भिक्षुक-संयमशील साधु और भिक्षुकी-साध्वी यदि ऐसा वक्ष्यमाण रूप से उपाश्रय को जानलेकि-इस उपाश्रय के निकटवर्ती गृहस्थके घर में गृहपति-गृहस्थ श्रावक या गृहपति की भार्या या गृहपति की भगिनी-बहिन या धाई परिचारिका या गृहपति का पुत्र या गृहपति की दुहिता-लडकी या હવે પ્રકારાન્તરથી ગૃહસ્થના ઘરની નજીકના ઉપાશ્રયમાં સાધુને ન રહેવા વિષે કથન કરે છે.___टय-से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' ते पूरित सयभशी साधु भने सायो से जं पुण उवस्सयं जाणिज्जा' १क्ष्यमा प्र४।२थी उपाश्रयने 103-'इह खलु गाहावइ वा मा 6श्रयनी न स्थना ५२मा खस्य श्रा१४ मा 'गाहावइ भारिया वा' ५ श्रावनी श्री 4241 'गाहावइभगिणी वा' गृहस्थ ायनी मन मया 'गाहावइ पुत्तो वा' रुपतिना पुत्र मा 'गाहावइ धूए वा' ७स्थ श्रावनी yal भयया 'मुण्हे वा' सत्यनी पुत्र५५ मया 'धाई वा' घाइ-परिया७ि मा 'दासो श्री. आय सूत्र : ४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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