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________________ ४२२ यारए' निषीधिकारताः स्वाध्यायलीनाश्च भवन्ति, एवं 'सिज्जासंथारपिंडवायएसणारए' शय्यासंस्तार पिण्डपातैषणारताः ग्लानादिकारणतः शयनार्थं संस्तारकरताः अङ्गारधूमादि दो परहिताहारग्रहणरताश्च मवन्ति, 'संति भिक्खुणो एवमक्खाइगो' सन्ति विद्यन्ते भिक्षुकाः साधवः एवम् - उपर्युक्तरीत्या आख्यायिनः - यथावस्थितउपाश्रयदोषवक्तारः 'ऋजुया ' ऋजुकाः सरळाः छलकपटादि दोषवर्जिताः 'णियागपडिवन्ना' नियागप्रतिपन्नाः नियागः संयमः मुक्ति तत्प्रतिपन्नाः तद्रता भवन्ति 'अमायं कुव्यमाणा वियाहिया' अमायां कुर्वाणाः अमायिनः मायारहिताः साधवः व्याख्याताः प्रतिपादिताः । उक्तञ्च मूल्लुत्तरगुणसुद्धं थी पसुपंडगविवज्जियं वसहिं । सेवेज्ज सव्वकालं विवज्जए हुंति दोसाउ || १ || मूलोत्तरगुण शुद्धां स्त्रीपशुपण्डकविवर्जितां वसतिम् । सेवेत सदाकालं विषर्ययेतु भवन्ति दोषाः ॥ १ ॥ इति, मूलोचरगुणास्तु- 'पट्टी बंसो दो धारणाओ चत्तारि मूलवेलीओ । मूलगुणेहिं विसुद्धा, एसा 1 आचारागसूत्रे पणारत - अर्थात् ग्लान बिमार साधु के लिये संधार पाथरने में भी लीन रहते हैं अङ्गधूमादि दोष रहित आहार ग्रहण करने में तल्लीन रहते हैं और 'संति भिक्खुणो एवमखाइणो ऋजुपा' इस प्रकार के भी बहुत से जैन साधुमुनि महात्मा गण होते हैं जोकि उक्तरीति से यथावस्थित उपाश्रय के दोषों के वक्ता एवं छलकपटादि दोषों से रहित ऋजु खल स्वभाववाले और 'णियागपडिना' - नियागप्रतिपन्न अर्थात् संयम या मुक्तिरत तथा 'अमायं कुव्यमाणा' माया रहित और माया नहीं करने वाले भी 'वियाहिया' बहुत से साधु होते हैं इसीलिये कहा भी है- 'मूल्लुत्तरगुण सुद्धं' मूलोत्तर मूलगुणों से और उत्तरगुणों से शुद्ध और 'थीपसुपंडगविवज्जियं वसहिं' स्त्री पशु तथा नपुंसक से रहित उपाश्रय रूप वसति को 'सेवेज्झसव्वकाल' सर्वकाल सेवन करे अन्यथा 'विव जिएहुति दोसाऊ' अर्थात् विपर्यय मूलोत्तर गुणों से शुद्ध नहीं हो और स्त्री, रहे छे. मने 'सेज्जासंथारपि पडवाएसणारए' शय्या संस्तार पिंडपातैषारत अर्थात् ગ્લાન બિમાર સાધુ માટે સથારો પાથરવામાં પણ લીન રહે છે. અને અંગાર ધૂમ વિગેરે દ્વેષથી રહિત આહાર ગ્રહણ કરવામાં તલ્લીન રહે છે. तथा 'संति भिक्खुणो एवमखाइणो' मा प्रहारना यात्रु धगा साधु गए होय छेउ अारथी यथावस्थित उपाश्रयना होत्रोने अनार तथा 'ऋजुया णियागपडिवन्ना' छपट विगेरे दोषोथी રહિત ઋજુ સરળ સ્વભાવવાળા અને નિયાગ પ્રતિપન્ન અર્થાત્ સંયમ અથવા મુક્તિરત तथा 'अमायं कुमाणा वियाहिया' अभायी - भाया रहित अर्थात् भाया नहीं पुरवावाजा मेवा घालु साधुयो होय छे. तेषी उधुं छे.- 'मुल्लुत्तरगुणसुद्ध' भूण भने उत्तर गुणुथी शुद्ध तथा 'थी पसुपंडगविवज्जियं वसहिं' स्त्री पशु तथा नपुंसह विनाना उपाश्रय३५ वसतिने 'सेवेज्ज सव्वकालं' साधुये सर्वक्षण सेवन १२' 'विवज्जिए हुति दोसाउ' શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૪
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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