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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंघ २ उ. ३ स. ३५ शय्येषणाध्ययननिरूपणम् रहितः, अथ-एवम् एषणीयः मलोत्तरगुणीयदोषरहितत्वात् आधाकर्मादिदोषरहितत्वाच्च शुद्धः उपाश्रयो नो सुलभः संभवति अपितु दुर्लभ एव, तथा 'जोय खलु सुद्धे इमेहिं पाहडेहि' नो च खलु शुद्धः उपाश्रयः एभिः प्राभृतकैः पापकर्मकृत्यैः निष्पादित शुद्धः संभवति तान्येव पापकर्मकृत्यान्याह-'तं जहा-छायणओ लेवणओ संथारदुवारपिहाणओ' तद्यथाछादनतः साध्वर्थम् आच्छादनकर्मतः ले पनतः-गोमयादिना लेपनामतः, संस्तारद्वारपिधानतः-संस्तारकभूमि समीकरणादिक्रियातः द्वारपिधानार्थकपाटादिनिर्माणनश्च, 'पिंडवाए. सणाओ' पिण्डपातैषणातः पिण्डपातैपणा दृष्टयापि शय्यातरपिण्डग्रहणाग्रहणतः शुद्धोपाश्रयो दुर्लभ इति ‘से य भिक्खू चरियारए' ते च भिक्षुकः निग्रन्थाः साधवः चरिताः-नरकल्पि. विहारचर्यारता भवन्ति तथा 'ठाणरए' स्थानरताः-कायोत्सर्गादिरूप ध्यानरताः 'णिसीहिदोष रहित 'जोय खलु सुद्धे इमेहिं पाहुहेहिं' इस प्रकार के प्रभृतकों से अर्थात् पापकर्म से निष्पादित उपायों से शुद्ध उपाश्रय नहीं हो सकता-'तं जहा छायणओ लेवणओं जैसे कि साधु के लिये आच्छादन कर्म और गोमय गोबर वगैरह द्वारा लेपन कर्म से एवं 'संथार दुधारपिहाणओ' संथरा बिस्तर पाथरने के लिये भूमितल को समतल करने की क्रिया से अर्थात्-छील छाल करने से एवं द्वार को बन्द करने के लिये कपाटादि का निर्माण करने से एवं 'पिंडवाएसणाओ' पिण्डपात भिक्षाको एषणा दृष्टि से अर्थात् शय्यातर का पिण्ड का ग्रहण करना या ग्रहण नहीं करने के विचार से भी शुद्ध उपाश्रय दुर्लभ है क्योकि-'सेय भिक्खू चरियारए' वे भिक्षुक निग्रन्थ जैन साधु लोग चर्यारत अर्थात् नवकल्पि विहार चर्या में तल्लीन रहते हैं एवं 'ठाणरए'-स्थानरत अर्थात् ध्यान रूप कायोत्सर्ग में भी तल्लीन रहते हैं एवं 'मिसीहियारए' निषीधिकारत अर्थात् स्वाध्याय करने में तल्लीन रहते हैं और 'सेज्जासंथारपिंडवाएसणारए'-शय्या संस्तार पिण्डपातेણીય અર્થાત્ મૂત્તર ગુણ સંબંધી દોષ રહિત અને આધાકર્માદિ દેષ રહિત શુદ્ધ ઉપાअ५ ‘णो य खलु सुद्ध' सुखाडात नथी ५२ हुन छे. तथा 'इमेहि पाहुडेहिं' આવા પ્રકારના પ્રાભૂતથી અર્થાત્ પાપકર્મથી સંપાદિત ઉપાયથી શુદ્ધ ઉપાશ્રય થઈ शते नथी. 'तं जहा' २५ है-'छायणओ' साधुने भोटे २४ २५२४ान था 'लेषणओं छ। विगेरे । वेपन ४थी व 'संथाग्दुवारपिहाणओ' सस्ता२४ पथारी पाय२१॥ માટે ભૂમિનલને સમતલ કરવાની ક્રિયાથી અર્થાત ઠીકઠાક કરવાથી તથા દ્વારને બંધ કરવા भाटे ४मा विगैरेनु निभाय ४२वाथी तथा 'पिंडवाएसणाओ' (पात मिक्षानी मेष। દષ્ટિથી અથવા શય્યાતરના પિંડને ગ્રહણ કરવા કે ગ્રહણ ન કરવા તેવા વિચારથી પણ शुद्ध पाय दुम छे. भ. -'सेय भिक्खू चरियारए' निन्य साधु यारत અર્થાત્ ચર્યામાં તલ્લીન રહે છે. તેમજ કાળrg' સ્થાનરત અર્થાત્ ધ્યાનરૂપ કાર્યોત્સર્ગમાં ५४ टीन २ छ. तथा 'णिसीहियारए' पापित अर्थात् २१६याय ४२वामा तीन श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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