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________________ आचारांगसूत्रे शीतोष्णकालरूप ऋतुसम्बद्धं मासकल्पम् 'वासावासियं वा वर्षावासं वा वर्षाऋतु सम्बद्धं चातुमस्यिं 'कप्पं' कल्पं वसतिम् 'उवातिणावित्ता' उपातिनीय अतिवाह्य अन्यत्र मासमेकं स्थित्वा इत्यभिप्रायेणाह 'तं दुगुणा दुगुणेण अपरिहरित्ता' तम् ऋतुसम्बद्धं मासकल्पम् वर्षासं च तु. मास्यकल्पं वा द्विगुणत्रिगुणादिना मासादिकल्पेन अपरिहृत्य-द्वित्रैर्मासैव्यवधानमकृत्वा 'तत्थेव' तत्रैव तस्मिन्नेव स्थले 'भुजो भुज्जो' भूयो भूयः 'संवसंति' संवसन्ति कारणमन्तरेण वसतिं कुर्वन्ति 'अयमाउसो' हे आयुष्मन् ! इयम् 'इत्तरा' इतरा अन्या उपर्युक्तभिन्ना ‘उवट्ठाणकिरिया' उपस्थानक्रिया 'यावि भवई' चापि भवति, पुनस्तत्रैव वसतिकरणे अयमन्यउपस्थासे त्राण करने वाले जैन साधु मुनि महात्मा लोग ऋतु बद्ध-अर्थात् शीतोष्ण काल रूप ऋतु सम्बद्ध मासकल्प तथा 'वासावासियं वा कप्पं उपातिणाक्त्तिा ' वर्षावास अर्थात् वर्षाऋतु सम्बद्ध चातुर्मास्य कल्पवास को बिताकर दूसरे स्थान में एकमास ठहर कर उस ऋतुबद्ध मास कल्प को और 'तं दुगुणा दुगुणेण' वर्षा संबद्ध चातुर्मास्य कल्प को दो गुणा या तीन गुणा वगैरह 'अपरिहरित्ता' मासादि कल्प से व्यवधान किये बिना ही अर्थातू द्वि गुणा त्रि गुणादि मासादि कल्पों को दूसरे स्थान में रहने के बिना ही तत्थेव' उसी स्थल में फिर 'भुज्जो भुज्जो संवसंति' बार बार आकर ग्लानादि कारण के विना ही ठहरती हैं याने आकर वहीं पर रहते हैं सो ठीक नहीं है इस अभिप्राय से भगवान् महावीर स्वामी कहते हैं कि हे आयुष्प्रन् ! श्रमण ! यह दूसरी ही पूर्वोक प्रथम दोष से भिन्न ही उपस्थान-ठहरना क्रिया कहलाती हैं अर्थात् एक वार मासकल्प या चतुर्मासकल्प वास करके फिर उसी उपाश्रय में जल्दी ही आकर रहना यह पूर्वोक्त कालातिक्रम नाम के दोष से भिन्न ही उपस्थान क्रिया नाम का दोष कहलाताहै इसलिये संयम नियम को अच्छी तरह पालन करने वाले द्धियं वा' तुम अर्थात् शीतोष्णस३५ ऋतु समधी भास४६५ 'वासावासिय वा' तथा वर्षापास अर्थात् यातुर्मास४८५ पासने 'उवातिणावित्ता' पीतापीन मात्र स्थानमा समास २हीने मे तुमद्ध मास ४५ने भने वर्षा समधी यातुर्मास ८५ने 'दुगुणा दुगुणेण' मभ 'अपरिहरित्ता' भासापिनु व्यवधान ४ा विना ४ मर्थातू अभए। त्रए गए भासा६४८५ने मीस्थानमा पास ४ा विना 'तत्थेष भुज्जो भुज्जो' मे स्थानमा पा२।२ माबीन खान ४२५१ विना 'संवसंति' त्यां આવીને રહે છે. તે ગ્ય નથી. આ અભિપ્રાયથી ભગવાન મહાવીર પ્રભુ કહે છે કેહે આયુમન શ્રમણ ! આ બીજી પૂર્વોક્ત પ્રથમ દષથી જુદી જ ઉપસ્થાનક્રિયા કહેવાય છે. અર્થાત્ એકવાર માસક૯પ અથવા ચાતુર્માસ ક૫ વાસ કરીને પાછા એજ ઉપાશ્રયમાં જહિદ આવીને રહેવું એ પૂર્વોક્ત કાલાતિક્રમ નામના દેષથી જુદા પ્રકારને ઉપસ્થાન ક્રિયા નામને દોષ કહેવાય છે તેથી સંયમ નિયમનું સારી રીતે પાલન કરવાવાળા श्री आया। सूत्र : ४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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