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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतकस्थ २ उ० १ सू. १५ शय्येषणाध्ययननिरूपणम् ३६३ साइज्जा' एतद् वा मनः स्वदेत रोचयेत् मनसि रागद्वेषोत्पादः स्यात् 'अहभिक्खूणं पुन्वोदिट्ठा एस इण्णा' अथ किन्तु भिक्षूणां साधूनां कृते पूर्वोपदिष्टा पूर्व तीर्थकुदुक्ता यथासंयमपालननियमरूपा प्रतिज्ञा वर्तते 'एस हेऊ' एष हेतुः 'एयं कारणे' एतत् कारणम् 'एस उवदेसे' एप उपदेशः कोऽसौ उपदेशः ? इत्याह- 'जं तहप्पगारे उवस्सए' यत् तथा प्रकारे तथाविधे गृहपति सहिते उपाश्रये 'णो ठाणं वा सेज्जं वा निसीहियं वा' नो स्थानं वा कायोत्सर्गरूपम्, शय्यां वा संस्तारकरूपाम् निपीधिकां वा स्वाध्यायभूमिरूपाम् 'चेतेज्जा' चेतयेत् कुर्यात् एतावता गृहपति प्रभृतिभिः सह उपाश्रये निवसतः साधोः गृहस्थानां सुवर्णादि भूषणालंकृत युवति दर्शनेन मनसि क्षोभोत्पच्या संयमात्म विराधना स्यादिति फलितम् ॥ १५ ॥ 'इयं वा म साइज्जा' इस प्रकार मन में क्षोभ उत्पन्न होने से संयम आत्म विराधना होगी क्योंकि ऐसे अलंकारों को और युवती कुमारी को देखकर मन में रागद्वेष उत्पन्न होने की संभवना रहती है 'अह भिक्खूणं पुव्योवदिट्ठा एस पण्णा, एस हेऊ, एयंकारणे, एस उवदेसे' अथ-किन्तु भिक्षुकों के लिये भगवान् तीर्थकर ने पहले ऐसी प्रतिज्ञा बतलायी है कि साधुओं को संघम नियम का पालन करना ही परम कर्तव्य है और मुख्य हेतु या मुख्य कारण है ऐसा उपदेश दिया है कि 'जं तहपगारे उवस्सए' इस प्रकार के सागारिक उपा श्रय में साधु को 'णो ठाणं वा' स्थान-ध्यान रूप कायोत्सर्ग के लिये निवास नहीं करना चाहिये और 'सेज्जं वा' शय्या - शयन के लिये संथरा भी नहीं पाथरना चाहिये तथा 'निसीहियं वा चेतेज्जा' निषीधिका - स्वाध्याय के लिये भी नहीं रहना चहिये क्योंकि उक्तरीति से सपरिवार गृहस्थों के साथ उपाश्रय में रहते हुए साधु के मन में गृहस्थ की सुवर्णादि जेवर जात से विभूषित या सुसज्जित सुन्दरी युवती स्त्री को देखकर क्षोभ उत्पन्न होगा जिस से संयम आत्म विराधना होगी ॥ १५ ॥ મનમાં ક્ષેાભ થવાથી સયમ આત્મ વિરાધના થાય છે. કેમ કે એવા અલકારાને અને युवती } कुमारीने लेहने भनभां रागद्वेष थवानी संभावना रहे छे. 'अह भिक्खू णं पुव्वोदिट्ठा एस इण्णा' साधुगोने माटे भगवान् तीर्थ रे सेवी प्रतिज्ञा मताचीछे हैसाधुये संयम नियम पालन न परम उर्तव्य छे. 'एसहेऊ' भने मेन भुय हेतु छे. 'ए' कारणे' मेन मुख्य २५ छे. 'एस उवएसे' ४ उपदेश छे - 'जं तपगारे उस्सए मा प्रभाषेना सामारि उपाश्रयमा 'णो ठाणं वा सेज्जं वा' साधु કે સાધ્વીએ ધ્યાન રૂપ કાચેસ માટે નિવાસ કરવા નહી. અને શય્યા અર્થાત્ શયન भाटे सौंथा। पशु पायरवो नहीं' अथवा 'णिसीहियं वा' निषधि अर्थात् स्वाध्याय માટે પણ રહેવુ' નહીં. કેમ કે એવી રીતના પરિવારવાળા ગૃહસ્થની સાથે ઉપાશ્રયમાં રહેવાથી સાધુના મનમાં ગૃહસ્થની અલંકારવતી સુંદર યુવતી શ્રીને કે શણુગારેલ કન્યાને જોઈને ક્ષેાભ થશે અને તેથી સંયમ આત્મ વિધિના થાય છે. સૂ. ૧૫ ॥ શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૪
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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