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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ उ. १० सू. १०४-१०५ पिण्डैषणाध्ययननिरूपणम् २६७ वा अध्यापकः 'पवित्ती वा' प्रवर्ती वा वैयावृत्त्यादौ साधूनां प्रवर्तकः थेरे वा' स्थविरो वासंयमपालने विषीदतां साधूनां स्थिरीकारका, 'जाव' यावत्-गणी वा गणधरो वा 'गणावच्छेइए वा' गणावच्छेदको बा-गच्छकार्यचिन्तको वा भवतु 'ण खलु मे कस्सवि' नो खलु मे मम कस्यापि आचार्यस्य वा उपाध्यायस्य वा यावत् गणावच्छेदकस्य वा 'किंचिवि दायव्वं सिया' किश्चिदपि आहारजातं दातव्यं स्यात्, केभ्यः अपि आचार्यादिभ्यः किश्चिदपि नीरसम् अशनादिकं मया न दातव्यं वर्तते इतिकृत्वा यदि स्वयमेव सर्वमद्यात् तर्हि 'माइहाणे संफासे' मातृस्थानम्-मायाछलकपटादिदोषान् संस्पृशेत्-प्रायश्चित्ती स्यात, तस्माद 'गो एवं करेजा' नो एवं कुर्यात-मनोज्ञं स्वादिष्ट मशनादिकं नीरसेन भोजनेन आच्छाद्य न सर्व स्वयमेव भुञ्जीत, किं कुर्यादित्याह-'से तमायाए' स साधुः तद्-स्वादिष्टमाहारजातम् अनुयोगधर हों या उपाध्याय-अध्यापक हों या प्रवर्ती-वैयावृत्ति सेवा वगैरह के लिये साधुओं का प्रवर्तक हों, या स्थविर हों या यावत्-गणी या गणधर हों अथवा गणावच्छेदक हों अर्थात् गणकार्य का चिन्तक हां, इनमें किसी को भी कुछ भी नीरस अशनादि में नहीं दूगा चाहे आचार्य ही क्यों नहीं हों, या उपाध्याय ही क्यों नहीं हों, इसी प्रकार यावत्-प्रवर्ती ही क्यों नहीं हो, अथवा स्थविर ही क्यों नहीं हों, एवं गणी ही क्यों नहीं हों, तथा गणधर ही क्यों नहीं हों, या गणावच्छेदक ही क्यों नहीं हों, ऐसा छलकपट पूरक कह कर स्वयं सभी मनोज्ञ सरस स्वादिष्ट भोजन जात को वह साघु खाले तो उस साधु को 'माइट्ठाणं संफा से, णो एवं करेज्जा' मातृस्थान-छलकपटादि दोष होगा, इसलिये ऐसा नहीं करे अर्थातू अच्छा सरस मनोज्ञ स्वादिष्ट भोजन जात को नीरस भोजन से ढांककर उन साधु मण्डल को दिखलाये बिना ही स्वयं यदी बह साधु खा जाय तो छलकपटादि रूप मातृस्थान दोष लगने से प्रायश्चित लगेगा अतः उक्तरीति से छलकपटकर स्वयं नहीं खाना चाहिये ५४ पाध्याय डाय अथवा 'पवित्ती वा' प्रति सेवा वयात्त भाटे साधुसौना अपत डाय अथवा 'थेरे वा' स्था१२ डाय यावत् गी डाय , गधर डाय 424। 'गणावच्छेदए રા' ગણાયછેદક હેય અર્થાત ગણકાર્યના ચિંતક હેય આ પૈકી કઈને કોઈ પણ પ્રકારનું નિરસ અશનાદિક હું આપીશ નહીં. આ રીતે છળકપટ પૂર્વક કહીને પિતે જ એ સરસ स्वाहिट गाडा२ सय साधुन 'माइट्ठाणं संफासे' मातृस्थान ७५४५ोष माग छ. तेथी ‘णो एवं करेज्जा' मा रीते ४४५८पाणी व्यवसा२ ४२३॥ नही मात सा। સરસ મજ્ઞ સ્વાદિષ્ટ આહાર જાતને નીરસ એવા અનિચ્છનીય આહારથી ઢાંકીને એ સાધુ સમુદાયને બતાવ્યા વગર જ જે સ્વયં તે સાધુ ખાઈ લે તે તે સાધુને છળકપટાદિ માતૃસ્થાન દેષ લાગવાથી પાયશ્ચિત્ત લાગે છે તેથી ઉક્ત પ્રકારથી છળકપટ કરીને धात भाडा न . ५२तु 'से तमायाए' से पूla साधुणे मारना स्पादि श्रीमाया सूत्र:४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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