SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 279
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६८ आचारांगसूत्रे आदाय-गृहीत्वा तत्थ गच्छेज्जा' तत्र- आचार्यादि समीपे गच्छेत्, 'तत्थ गच्छित्ता' तत्रआचार्यादिनिकटे गत्वा 'गुब्बामेव उत्ताणए हत्थे' पूर्वमेव-भोजनात्प्रागेव उत्ताने हस्ते 'यडिगाई कटु' प्रतिग्रहम्-भोजन-भोजनसहितं पात्रम् कृत्वा 'इमं खलु इमं खलु त्ति ओलोइज्जा' इदं खलु आहारजातम् इदं खलु आहारजातं वर्तते इति रीत्या यथाऽवस्थितमेव आलोचयेत्-दर्शयेन 'णो किंचिविणिगृहिज्जा' नो किमपि आहारजातं निगृहेत-गोपयेत् आच्छादयेदिति ॥१०४॥ मूलम्-से एगइओ अण्णयरं भोयणजायं पडिगाहित्ता, भद्दयं भयं भोच्चा विवन्नं विरसमाहरइ, माइटाणं संफासे, णो एवं करेजा ॥१०५॥ छाया-स एकतरः अन्यतरद भोजनजातं प्रतिगृह्य भद्रकं भद्रकं भुक्त्वा विवर्ण विरसम् आहरति मातृस्थानं संस्पृशेत्, नो एवं कुर्यात् ।। सू० १०५॥ टीका-प्रकारान्तरेण मातृस्थानभूत मापाछलकपटादि प्रतिषेधमाह-'से एगइओ' सअपितु 'से तमायाए तत्थ गच्छेन्जा' यह पूर्वोक्त साघु उस स्वादिष्ट आहार जात को लेकर वहां पर आचार्य वगैरह साधु मण्डल के निकट चला जाय और 'तत्थ गच्छित्ता पुयामेव' वहां जाकर भोजन करने से पहले ही 'उत्ताणए हत्थे' उत्तान हस्त में 'पडिग्गहं कटु' भोजन सहित पात्र को रखकर 'इमें खलु इमं खलुत्ति' यह सभी आहार जात है' ऐसा वारं वार उस आहार जात को यथाऽवस्थित रूप में हो जैसा हो वैसा ही 'आलाएज्जा' दिख. लाये, उस में कुछ भी 'णो किंचिचि णिगूहेज्जा' आहार को नहीं छिपाये अर्थात् उस अशनादि चतुर्विध आहार जात में से थोडा भी स्वादिष्ट आहार को नीरस आहार से नहीं ढाके अपितु समी को को दिखलावे ऐसा करने पर उस साधुको छल कपटादि रूप मातृस्थान दोष नहीं होता ॥१०४॥ टीकार्थ-अब दूसरे ढंग से माया छलकपटादि रूप मातृस्थान दोष का निषेध करते हैं-'से एगइओ अण्णयरं भोयणजायं पडिगाहित्ता' वह पूर्वोक्त ट मा २२ र 'तत्थ गच्छेज्जा' माया (वगैरे साधु समुदायनी पास न भने 'तत्थ गच्छित्ता' त्यi ४४२. 'पुवामेव' पोते माहार सीधा पखi २४ 'उत्ताणए हत्थे। उत्तान मा 'पडिग्गहं कटूटु' वाणा पात्रने १४२ 'इम खलु इम खलुत्ति आलोएज्ज' આ સઘળે આહાર છે એમ કહી તે બધા આહાર જાતને યથાવસ્થિત રીતે જે હોય तव मता ‘णो किचिवि णिगूहेज्जा' तेमांथा ४४ ५५५ पहाथ छुपा नही अर्थात से અશનાદિ ચતુર્વિધ આહાર જાતમાંથી ડાપણુ સ્વાદિષ્ટ આહારને નિરસ આહારથી ઢાંકયા વગર બધો જે હોય તે આહાર બતાવે એમ કરવાથી તે સાધુને છળકપટાદિરૂપ માતૃથાન દોષ લાગતું નથી. સૂ. ૧૦૪ હવે બીજા પ્રકારથી માયા છળકપટાદિ માતૃસ્થાન દેષને નિષેધ કરતાં સૂત્રકાર કહે છે.सजाय -से एगइओ ते पूरित 23 साधु 'अण्णयर भोयणजाय पडिगाहिता' रे श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy