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________________ २६० आचारांगसूत्रे तम् बहिरानीतम् वर्तते किन्तु 'तं परेहिं असमणुनाय' तत्-बहिरानीतम् अशनादिकं परैःअन्यैः गृहस्थैः यदि असमनुज्ञातं-नानुमतम्, अणिसिटुं' अनिसृष्टम्-स्वाधीनी कृतं न पराधीनीकृतम् ‘वर्तते तर्हि 'अप्फामुयं अप्रासुकम् सचित्तम् 'अणेसणिज्ज' अनेषणीयम्आधाकर्मादिदोषयुक्तम् 'जाव' यावत-मन्यमानो ज्ञात्वा लाभे सति 'णो पडिगाहिज्जा' नो प्रतिगृह्णीयात्, तथाविधाहारजातस्य गृहस्थैरननुमतत्वेन अनिसृष्टत्वेन च सचित्ताधाकर्मादिदोषदुष्टत्वात् तद्ग्रहणे संयमविराधना स्यात्, परन्तु 'तं परेहिं समणुन्नायं' तत्-तथाविधमाहारजातम् परैः गृहस्थैः समनुज्ञातम् 'संणि सिट्ट' सन्निसृष्टम् तदधीनीकृतम् तर्हि 'फासुयं' प्रामुकम् अचित्तम् 'जाव' यावत् एषणीयम्-आधाकर्मादिदोषरहितं मन्यमानः ज्ञात्वा 'लाभे संते' लाभे सति 'पडिगाहिज्जा' प्रतिगृह्णीयात्, आधाकर्मादिदोषरहितत्वात् ॥ सू० १०१॥ अर्थात् दूसरे के अधीन में नहीं किया है तो इस प्रकार के स्वाधीन कृत अशनादि आहार जात को 'अप्फासुयं' अप्रासुक सचित्त समझकर और 'अणेसणिज्ज जाव' अनेषणीय-आधाकर्मादि दोष से युक्त यावत्-मानते हुए साधु और साध्वी मिलने पर भी 'णो पडिगाहिज्जा' नहीं ग्रहण करे क्योंकि इस तरह के आहार को गृहस्थ श्रावकों ने देने के लिये अनुमति नहीं देने से और अपने ही अधीन में रखने से सचित्त आधाकर्मादि दोष युक्त होने के कारण उस को लेने पर संयम आत्म विराधना होगी किन्तु 'तं परेहिं समणुन्नायं संणिसिह फासुयं जाव लाभे संते पडिगाहिज्जा' यदि तथाविध-अशनादि चतुर्विध आहार जात को देने के लिये गृहस्थ श्रावकों ने अनुमति देदी है और दूसरे के अधीन में भी कर दिया है तो इस तरह के अशनादि आहार जात को प्रासुक अचित्त तथा यावत् एषणीय-आधाकर्मादि दोषों से रहित मान कर मिलने पर ले लेना चाहिये क्योंकि आधाकर्मादि दोषो से रहित है इसलिये इस प्रकार का श्रावकों से अनुमत और पराधीनी कृत अशनादि चतुर्विध आहार जात को मिलने पर लेने से संयम आत्म विराधना नहीं होगी ॥ १०१॥ तो माया प्रारना स्वाधीनी दूत मनाहि माडार जतने 'अल्फासुय' मासु तथा अणेसणिज्ज' अनेषणीय आधादिषवाणी यावत् भानी साधु सने सावी ते२॥ આહાર મળે તે પણ તેને ગ્રહણ કરે નહીં. કારણ કે એવા આહારને ગ્રહસ્થ આપવા અનુ મતિ ન આપેલ હોવાથી અને પિતાને આધીન રાખેલ હોવાથી અમાસુકાદિ દોષ યુક્ત હોવાને रणे तसेपाथी सयम माम विराधना थाय छे. ५२ तु तं परेहि समणुण्णाय' ने तेव। माहा२ मा५१॥ भाट २८ अनुमति मापी जाय भने संनिसिटुं' मन्याना मधिन पामा २४ जाय तो ते मा२ फासुयं जाव' भयित्त तथा यावत् अषणाय माया. Bादिषयी २त मानीने 'लाभे संते पडिगाहिज्जा' प्रा. थाय तस्वीरी सेवा. કેમ કે સચિરાદિ દેષ રહિત હોવાથી તેવી રીતે શ્રાવકોએ અનુમત કરેલ તથા પરાધીનિ કૃત અનાદિ આહાર જાતને પ્રાપ્ત થતાં તે લેવાથી સંયમ આત્મ વિરાધના થતી નથી, પાસ, ૧૦૧ श्रीमाया सूत्र:४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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