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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ उ. ९ सू० १०१ पिण्डैषणाध्ययननिरूपणम् २५९ से जं पुण एवं जाणिजा, असणं वा पाणं वा खादिमं वा साइमं वा परं समुदिस्त बहिया णीहडं तं परेहिं असमणुन्नायं अणिसिटुं अप्फासुयं अणेसणिज्जं जाव णो पडिगाहिज्जा, तं परेहिं समणुन्नायं संणिसिटुं फासुयं जाव लामे संते पडिगाहिजा सू० १०१॥ छाया-'स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा गृहपतिकुलं यावत् प्रविष्टः सन् स यदि पुनरेवं जानी. यात्, अशनं वा पानं वा खादिमं वा स्वादिमं वा परं समुद्दिश्य बहिनिहतं तत् परैः असमनुज्ञातम् अनिसृष्टम् अप्रामुकम् अनेषणीयं यावद् नो प्रतिगृह्णीयात् तत् परैः समनुज्ञातं संनिसृष्टं प्रासुकं यावत् लाभे सति प्रतिगृह्णीयात् ॥ सू० १०१॥ ___टीका-'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' स पूर्वोक्तो संयमवान् भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा 'गाहबइकुलं' गृहपतिकुलम्-गृहस्थगृहं 'जाव पविढे समाणे' यावत्-पिण्डपातप्रतिज्ञया-भिक्षालाभार्थम् प्रविष्टः सन् ‘से जं पुण एवं जाणिज्जा' स संयमवाभिक्षुर्यदि पुनरेवं-वक्ष्यमाणरीत्या जानीयात् 'असणं वा पाणं वा खाइमं या साइमं वा' अशनं वा पानं वा खादिमं वा स्वादिमं वा चतु. विधमाहारजातं 'परं समुद्दिस्स' परम्-अन्य भाटप्रभृति समुद्दिश्य 'बहिया णीहडं' बहिनिहूं टीकार्थ-अब भी पिण्डैषणा के विषय में ही कुछ विशेष बात बतलाते है'से भिक्खू वा, भिक्खुणी वा, गाहावइकुलं जाव पविढे समाणे से जं पुण एवं जाणिज्जा' वह पूर्वोक्त भिक्षुक-साधु और भिक्षुकी-संयमशील साध्वी, गृहस्थ श्रावक के घर में यावतू-पिण्डपातकी प्रतिज्ञा से अर्थात् भिक्षालाभ की आशा से अनुप्रविष्ट होकर वह साधु और साध्वी यदि ऐसा-वक्ष्यमाणरूप से जानले कि-'असणं चा, पाणं वा, खाइमं वा साइमं वा' अशनादि चतुर्विध आहार जात 'परं समुहिस्स' अन्य भाट वगैरह को उद्देश करके देने के लिये 'पहिया णीहडं' बाहर लाया गया है किन्तु बाहर लाये गये उस चत. विध अशनादि आहार जात को 'परेहिं असमणुण्णायं' देने के लिये पर गृहस्थ श्रावक ने अनुमति नहीं दी है और 'अणिसि' अपने अधीन में ही रखा है પિંડેષણના સંબંધમાં જ વિશેષ કથન કરે છે – - से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' ते पूर्वात साधु २०१२ साली 'गाहावइकुलं जाव' गृहस्थ श्रा१४न। घरमा यावत् लक्षामालनी थी. 'पविटे समाणे' प्रवेश शन 'से जं पुण एवं जाणिज्जा' तमन। वामां से माहै 'असणं या पाणं वो खाइम या साइम वा' अशनाहियतुविध माडार 'परं समुहिस्स' मन्य माटयाने देशीर 'बहिया णीइडं' भने माया 48२ सावधामा मावेस छ. तं परेहिं असमणुण्णायं' ५२तु બહાર લવાયેલ ચતુર્વિધ આહાર જાત આપવા માટે પર-ગૃહસ્થ શ્રાવકે અનુમતિ આપેલ नथी. तथा 'अणिसिटुं' पोताना मधिसभा र रामेल छ अर्थात् भीतने सापेस नयी श्री मायारागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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