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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ उ. ७ सू० ९५ पिण्डैषणाध्ययननिरूपणम् २४५ एकान्तम् अपक्रम्य 'अणावायमसंलोए' अनापाते जनयातायातसम्पर्करहिते असंलोके-लोकाचलोकनरहिते स्थाते 'चिटिज्जा' तिप्ठेत्, अधानन्तरम् ‘से तत्थ कालेणं अणुपविसिज्जा' स-भिक्षुर्वा भिक्षकी वा तत्र-पूर्वपरिचिते पश्चात्परिचिते वा तस्मिन् ग्रामे कालेन यथा कालम् भिज्ञाग्रहणावसरे समुपस्थिते सति अनुप्रविशेत्, गच्छेद् 'अणुपविसित्ता' अनुप्रविश्य 'तत्थियरेयरेहिं कुले हि तत्र इतरेतरेभ्यः कुलेभ्यः-अन्पेभ्यो गृहेभ्यः पूर्वपरिचितपश्चात्परिचितभिन्नेभ्यः कुलेभ्यः इत्यर्थः 'सामुदाणियं एसियं' वेसियं पिंडवाय' सामुदानिकम्सामूहिकम् अनेकगृहसम्बन्धि एषितम्-एषणीयम्-उद्गमादिदोपरहितम्, वेपिकम्-साधुवेषमात्रनिमित्तात्प्राप्तम् उत्पादनादिदोषरहित मित्यर्थः पिण्डपातम्-भिक्षारूपमशनादिकमाहारजातम् 'एसित्ता' एषित्वा-अविष्य, याचित्वा 'आहारं आहारेज्जा' आहारम् एषणादोषरहितं अशनादिकम् भिक्षाग्रहणं कुर्यादित्यर्थः ते च षोडश उत्पादनादोषा:-धाई १ यमसंलोए चिहिज्जा' एकान्त में जाकर अनापात-मनुष्यों के यातायात सम्पर्क रहित और असंलोक-लोगों के अवलोकन रहित निर्जन स्थान में जाकर रहे उस के बाद से तत्थ कालेणं अणुपरिसिज्जा, वह साधु और साध्वी उस पूर्वपरिचित तथा पश्चात् परिचित ग्राम में यथा समय-भिक्षग्रहण का समय होने पर प्रवेश करे और 'अणुपविसित्ता' वहां प्रवेश कर 'तथियरेयरेहिं कुलेहिं' उस ग्राम के पूर्वपरिचित पिता वगैरह के घर को छोडकर एवं पश्चातपरिचित श्वशुर वगैरह के घर को भी छोडकर उन से दूसरे के घर 'सामुदाणियं' सामुहिक रूप में प्राप्त करने योग्य और 'एसियं' एषणीय-उद्गमादि दोषों से रहित एवं 'वेसियं' वैषिक-साधु पेषमात्र निमित्त से प्राप्त अर्थात् उत्पादनादि दोषों से रहित 'पिंडवायं एसित्ता' पिण्डपात-भिक्षा रूप अशनादि चतु. विंध आहार जात को दुंढ कर अर्थात् याचकर आहार को एतावता एषणा दोषों से रहित 'आहारं आहरेजा' अशनादि चतुर्विध आहार की याचना करे खाय । यहां पर उत्पादना दोष षोडश माने जाते हैं-१-धाई, २-दुई, ३मवक्कमिज्जा' मेन्त स्थणे याच्या 'एगंतमवक्कमित्ता' अने अन्तमा 'अणावायमसंलोए चिद्विज्जा' मासोना २०१२ विनानो नव ते शते नि स्थानमा १४२ 'से तत्थ कालेणं अणुपविसिज्जा' ते साधु १२२ साली ते पूर्व परियित ममा यथा समय अर्थात् भिक्षा सावाना समये प्रवेश ४२३। 'अणुपविसित्ता' माने त्या प्रवेश ४रीन 'तथियरे हिं कुलेहिं' ते मना पूर्व पश्थित पायाना धरीने छीन तेमनाथी भी घमा 'सामुदाणिय" सामू४ि३५थी प्राप्त ४२वा योग्य तय 'एसिय २५णीय-आमा हो५ विना तथा 'वेसिय' साधुना मात्रथा प्राप्त थता पात् पाना हो५ वरना 'पिंडवाय' मिक्षा ३थे भणे ते। मशन यतुर्विध सामा२ गतने 'एसित्ता' यायन। शने 'आहार' आहरेज्जा' ते २ ।।२ ७५योगमा 21. पानोष सण १२ छ. श्री माया सूत्र:४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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