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________________ २४४ आचारांगसूत्रे अशनं वा पानं वा खादिमं वा स्वादिमं वा चतुर्विधमाहारजातम् 'उवकारिज वा' उपकुर्यात्पाकार्थम् उपकरणजातम् उपढौकयेद् वा 'उवक्खडिज वा' उपस्कुर्याद् वा-शनादिकं पचेद वा किन्तु साधूनां साध्वीनाञ्च कृते एतन्न युक्तम् तत्र हेतुमाह-'अहभिक्खूणं पुबोवदिट्ठा एस पइण्णा' अथ किन्तु भिक्षणां कृते पूर्वोपदिष्टा-तीर्थकृदुपदिष्टा एषा प्रतिज्ञा-संयमपालननियमो वर्तते, 'एस हेऊ' एष हेतु: 'एस कारणे' एतत् कारणम् 'एसुवदेसे' एष उपदेशः, तदाह-'णो तह पगाराई कुलाई' नो तथाप्रकाराणि तथाविधानि पूर्वपरिचितानि पश्चात् परिचितानि वा कुलानि पितृपितृव्यादि गृहाणि 'पुयामेव भत्ताए वा पाणाए वा' पूर्वमेवभिक्षा ग्रहणात्प्रागेव भक्ताय वा पानाय वा भक्तपानाधाहारार्थम् 'पविसिज्ज वा मिक्खमिज्ज वा' प्रविशेद् वा निष्क्रामेद् वा, पविसत्ता निक्खमित्ता' प्रविश्य निष्क्रम्य 'से तमायाय' स-भिक्षुर्वा मिश्की वा सा तम्-पितृपितृव्यादि सम्बन्धि अशनादिकम् आदाय-अवगम्य ज्ञात्या 'एगतमवक्कमिज्जा' एकान्तम्-अपक्रामेद्-निर्जनस्थाने गच्छेत् 'पगंतमवक्कमित्ता' पकाने के लिये 'उवकरिज वा' उपकरण जात वटलोही वगैरह पात्रादिको पास में एकट्ठा करेगा और 'उचक्खडिज या' अशनादि आहार जात को पकायगा, किन्तु यह साधु और साध्वी के लिये अच्छा नहीं कहा जा सकता क्योंकि 'अह भिक्खूणं पुवोवदिट्ठा एस पइण्णा' एस हेऊ, एस कारणे, एसुवदेसे' भिक्षुकों-साधुओं के लिये भगवान् तीर्थकरने संयम पालन करने का उपदेश दिया है कि-'णो तहप्पगाराइं कुलाई पुधामेव भत्ताए वा, पाणाए वा पविसिज्ज या निक्खमिज वा' उस तरह के पिता वगैरह और श्वशुर वगैरहके घर में पहले ही पता लगाकर भक्तादि के लिये और पानी आदि के लिये नहीं जाय और वहां से भिक्षा लेकर निकले भी नहीं 'पविसित्ता निक्खमित्ता' यदि धोखा से प्रवेश करे तो वहां से निकल कर वह साधु और साध्यो ‘से तमायाय उस पिता वगैरह सम्बन्धियों के अशनादि चतुर्विध आहार जात को जान कर 'एगंतमवक्कमिजा' एकान्त मे चला जाया और एगंतमवक्कमित्ता अणावा मा५१। माटे 'असणं वा पाणं वा खाइम वा साइम वा' मशन पान माहिम मने स्वामि यतुविध माहारने मना। 'उवकरिज्ज वा' पास विगेरे साधन। २ ४४१ ४२री मने 'उवक्खडिज्ज वा' मना तैयार ४२0 0 तन मा सार साधु है साथीन भाटे योग्य ४ाता नथी. -'अह भिक्खूणं पुव्वोवदिवा पइण्णा' साधु सापान सयम पासन ४२५॥ भोट लगवान् तीथ ४२ पडसेथी ४५हेश मावेस छ-'णो तहप्प. गाराइं कुलाई सेवा प्र४५२ना पू ५श्वात् परथिताना परोमा 'पुवामेव' ५थी म५२ भगवीर भत्ताए वा पाणाए वा' मार सेवा माटे , ५४ी २ से। माटे 'पविसि ज्ज वा निक्खमिज्ज वा' १४ , त्यांधी ५।२ मा नही'. 'पविसित्ता' से सथी प्रवेश शसीधा डाय तो 'निक्खमित्ता' त्यांथी महार नीजीन ते साधु, साध्वी 'से तमायय' (पता विगेरेना घराभाथी सीधे भशनाहिन 10 'एगंत श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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