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________________ २२६ आचारांगसूत्रे 'खंधबीयाणि वा' स्कन्यवीजानि वा-शल्लकी प्रभृतीनि, 'पोरबीयाणि वा' पर्वबीजानि वाइक्षदण्डप्रभृतीनि, एवम् 'अग्गजायाणि वा-अग्रजातानि वा 'मूलजायाणि वा' मलजातानि चा 'खंघजायाणि वा' स्कन्धजातानि वा 'पोरजायाणि वा' पर्वजातानि या इक्षुप्रभृतीनि 'णण्णत्थ' नान्यत्र अग्रादेरन्यस्मादानीय अन्यत्र न प्ररोहितानि अपि तु तत्रैव अग्रादौ जातानि एवं 'तक्कलिमत्थएण वा' कन्दलीमस्तकं वा नेति वाक्यालंकारे' कन्दलीमध्यवर्तिगर्भरूपं 'तक्कलिसीसेण वा' कन्दलीशीर्ष वा, कन्दलीस्तबकरूपम् अत्रापि नेति वाक्यालंकारे 'नारिकएरमत्थएण वा' नारिकेलमस्तकं वा नारिकेलस्तबकरूपम् 'खज्जूरमत्थएण वा' खजूरमस्तकं वा-खर्जूरस्तबकरूपम् नेति वाक्यालंकारे 'तालमत्थएण वा' ताल मस्तकं वा तालफल स्तबकरूपम् 'अण्णयरं वा तहप्पगारं' अन्यतरद् वा अन्यद् वा तथाप्रकारम् अग्रवी. 'पोरचीयाणि वा' पर्व बीज हैं अर्थात् जिस के पोर में ही बीहन होते हैं ऐसा गन्ना चांस वगैरह को पर्व बीज कहने में आते हैं इस तरह जिस के स्कन्ध के मध्य भाग में ही बीहन होते हैं ऐसा शल्लकी नामका वनस्पति विशेष को स्कन्ध बीज कहते हैं एवं अग्गजायाणि या' इस तरह अग्र जात-अग्र भाग से ही उत्पन्न होने वाला जपाकुसुम वगैरह एवं 'मूलजायाणि वा' मूल जात-मूल भाग से ही उत्पन्न होने वाला जाति कुसुम वगैरह तथा 'खंधजायाणि वा' स्कन्ध जात-कन्ध भाग से ही उत्पन्न होनेवाला शल्लकी वगैरह वनस्पति विशेष 'पोर जायाणि वा' पर्व जात-पोर से ही उत्पन्न होने वाला गन्ना चांस आदि गांठ से होने वाले को पोर जात कहते है तथा 'णण्णस्थ' अर्थात् अग्रादि से भिन्नों को लाकर दसरे स्थान में नहीं उत्पन्न होने वाला एतावता उसी अग्रादि भागों में उत्पन्न होने वाले जपाकुसुम वगैरह वस्तुओं को देखकर या जान कर एवं 'तकलिमत्थएण वा' कन्दली मस्तक-अर्थात् गोलाकार लता-कन्दली के मध्य में रहने वाले गर्भ युक्त वस्तु को या 'तकलिसीसेण वा' कन्दली स्तबक को या 'नारिएरमत्थएण वा नरियल के स्तबकको अर्थात् कन्दली गुच्छा को या नरियल के गुच्छा को या 'खज्जुर मत्थएण वा' खजूर के गुच्छा को या तालमत्थएणवा' तफल के गुच्छा को देख कर या जान कर एवं 'अण्णयरं वा तहप्पगारं' इसी तरह के दूसरे भी किसी अन्य अमाथी 64-न २१ पासुभ विगेरे 1240 'मूलजायाणि वा' भूमा थी ४ अत्पन्न थना। नती असुभ विगेरे तथा 'खंध जायाणि वा' २७५ माथी ५. - ना२। ८ वगेरे तथा 'पोरजायाणि वा' ५4nd isमाथी १४ उत्पन्न थना२। २२१, ५iस विगैरे ‘णण्णत्थ' माथी मानने सावान भी स्थानमा नपन्न ना। એટલે કે એ અગ્રાદિ ભાગમાં પેદા થનારા જપ કુસુમ વિગેરેને જોઈને કે જાણુંને તથા 'तकलिमत्थए वा' ४२ ता-बीना मध्यमा २९यापार विगेरे पस्तुने २५५41 'तकलीसीसेण वा मनमा 'नालिपरमर एण पा' नाजायना छाने अथवा श्री मायारासूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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