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________________ मर्ममकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ उ. ८ सू० ८८ पिण्डैषणाध्ययननिरूपणम् २२५ जायाणि वा, पोरजायाणि वा णण्णस्थ तकलिमत्थए वा, तकलिसीसेण वा, णालिएरमथएण वा, खज्जूरमत्थएण वा, तालमत्थएण या, अन्नयरं वा तहप्पगारं आमं असत्थपरिणयं अप्फासुयं जाव लाभे संते णो पडिगाहिजा ।।सू० ८८॥ छाया-स भिक्षु भिक्षुकी वा गृहपतिकुलं यावत् प्रविष्टः सन् स यदि पुनरेवं जानीयात् तद्यथा-अग्रबीजानि वा, मूलबी नानि वा, स्कन्धबीजानि वा, पर्यबीजानि वा, अग्रजातानि वा, मूलजातानि वा, स्कन्धजातानि वा, पर्वजातानि वा नान्यत्र, कन्दलीमस्तकं या कन्दलीशीषे वा, नारिकेलमस्तकं वा खजूरमस्तकं वा, तालमस्तकंचा, अन्यतरद् वा तथा. प्रकारम् आमकम् अशस्त्रपरिणतम् अप्रासुकम् यावत्-लाभे सति नो प्रतिगृह्णीयात् ॥ ०८८॥ ___टीका-पिण्डैषणामधिकृत्य जपाकुसुमादीनि अग्रवीजादीनि निषेधितुमाह ‘से भिक्खू वा भिक्खुणी' स भिक्षुर्श भिक्षुकी का 'गाहावइकुलं' गृहपतिकुलं-गृहस्थगृहं 'जाव पविढे समाणे' यावत् पिण्डपातप्रतिज्ञया-भिक्षाग्रहणार्थ प्रविष्टः सन् ‘से जं पुण एवं जाणिज्जा' स संयमवान् भिक्षुः यदि पुनरेवं वक्ष्यमाणरीत्या जानीयात-'तं जहा-अग्गबीयाणि वा तद्यथाअग्रवीजानि वा जपाकुसुमप्रभृतीनि, 'मूलबीयाणि वा' मूलबीजानि वा-जातिकुसुमादीनि, अब पिण्डैषणा का अधिकार होने से जपाकुसुम वगैरह अग्र बीजों को लक्ष्यकर निषेध करते हैं टीकार्थ-‘से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइ कुलं जाच पविटे समाणे' वह पूर्वोक्त भिक्षक-संयमशील साधु और भिक्षुकी-साध्वी गृहपति-गृहस्थ श्रावक के घर में यावत्-पिण्डपात की प्रतिज्ञा से अर्थात् भिक्षालेने की इच्छा से अनुप्रविष्ट होकर वह साधु और साध्वी यदि से जं पुण एवं जाणिज्जा' ऐसा वक्ष्यमाणरूप से जान लेकि 'अग्गवीयाणि वा' अग्रबीज जपाकुसुम वगैरह अग्रवीज हैं तथा ये 'मृलवीयाणि वा' जाति कुसुम वगैरह मूल बीज हैं या शल्लकी वगैरह 'खंबीयाणि चा' स्कन्ध बीज है तथा इक्षुदण्ड-गन्ना वगैरह પિંકૈષણાને અધિકાર પ્રભુશ્રી હોવાથી જપાકુસુમ વિગેરે અગ્ર બીજેને ઉદેશીને હવે તેને નિષેધ બતાવે છે – टी-से भिक्खू बा भिक्खणी वा' ते पूर्वरित साधु साया 'गाहावइकुलं जाव' २५ श्रा५४ना घरमा यात मिक्षा भवानी छाथी 'पविट्ठ समाणे' प्रवेश ४शन से जं पुण एवं जाणिज्जा' तमना लामा यु मावे - 'अग्गबीयाणि वा' 20 ४पासुम विगेरे २५Aur छ तथा 'मूलबीयाणि वा' मा ति सुभ विगेरे भूज भी पा छे. म24 'खंधीयाणि वा' शसी विगैरे २४५ भी छे तथा 'पोरबीयाणि वा' शे२७ विगेरे ५4 भी छे. मात्रेनी गांभाभी डाय छ तेा छ. तथा 'अग्गजायाणि वा' आ० २१ श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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