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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ उ. ७ सू० ६९ पिण्डैषणाध्ययननिरूपणम् कायसंघट्टनात सचित्तारम्भकत्वात् आधाकर्मादिदोषयुक्तत्वाच्च स्थाविधमाहारजातं साधुभिः साध्वीमिश्च न ग्रहीतव्यमिति ॥ सू० ६८ ॥ ___ मूलम्-‘से विक्रवू वा मिक्खुणी वा गाहावइकुलं जाव पविटे समाणे से जं पुण एवं जाणिज्जा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं या आउकायपइट्टियं चेवं, एवं अगणिकायपइट्रियं लामे संते णो पडिगाहिज्जा 'केवली ब्रूया-'आयाणमेय” असंजए भिक्खुपडियाए अगणिकायं उस्सकिय उस्सकिय गिसकिय णिसकिय ओहरिय ओहरिय आहट्ट दलएज्जा, अहमिक्खूणं पुब्वोवदिट्टा एस पइण्णा, एस हेऊ, जाव णो पडिगाहिज्जा ॥ सू० ६९ ॥ ___ छाया-स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा गृहपतिकुलं यावत् प्रविष्टः सन् स यत् पुनरेवं जानीयात्-अशनं वा पानं वा खादिमं वा स्वादिमं वा अप्कायप्रतिष्ठितम् चैवम् एवम् अग्निकाय प्रतिष्ठित लाभे सति नो प्रतिगृहीयात् केवली ब्रूयात 'आदानमेतत्' असंयतः मिक्षप्रतिज्ञया अग्निकायम उत्सिच्य उत्सिच्य निपिच्य निषिच्य अवहृत्य अवहृत्य आहृत्य दद्यात्, अथ भिक्षणां पूर्वोपदिष्टा एषा प्रतिज्ञा, एष हेतुः यावत् नो प्रतिगृह्णीयात् ॥ सू० ६९॥ टीका-अप्काय-अग्निकाय जीवहिंसामधिकृत्य भिक्षानिषेधमाह- से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' स पूर्वोक्तो भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा 'गाहावाकुलं जाव' गृहपतिकुलं यावत्पर भी साधु और साध्वी उसको नहीं ग्रहण करें क्योंकि पृथिवीकापिक जीवों के ऊपर स्थापित होने से सचित्त पृथिवीकाय का संघटन होने से सचित्त का वध हो सकता है और आधाकर्मादि दोषों से भी युक्त है इसलिये उस प्रकार का अशनादि अहार जात को साघु साध्वी नहीं ले ॥३८॥ ____टीकार्थ अब अप्काय और अग्निकाय जीव की हिंसा को लक्ष्यकर भिक्षा का निषेध करते हैं-'से भिक्खू बा भिक्खुणी वा, वह पूर्योक्त भिक्षु-भाव साधु और भिक्षुकी-भाव साध्वी 'गाहावइ कुलं जाव पविट्टे समाणे भिक्षा लाभ की इच्छा से गृहस्थ के घरमें प्रवेश करते हुवे यदि 'से जं पुण जाणिज्जा' સચિત્ત પૃથ્વીકાયનું સંઘટન થવાથી સચિત્તની હિંસા થવાનો સંભવ રહે છે. અને આધા કર્માદિ દેષાથી પણ યુક્ત છે. તેથી તેવા પ્રકારને અનાદિ આહાર સાધુ સાધ્વીએ सेवा नही ॥सू.१८॥ હવે અપ્લાય અને અગ્નિકાય છની હિંસાને ઉદ્દેશીને ભિક્ષાને નિષેધ કરે છે – साथ-से भिक्खू वा भिक्षुणी वा' त्यात 'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' ते वेरित मा साधु सने भाप सापी 'गाहावइकुलं जाव' २५ श्रा431 मां लक्ष सानी थी 'पविढे समाणे' प्रवेश ४२di ‘से जं श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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