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________________ १८२ ____ आचारांगसूत्रे पिण्डपातप्रतिज्ञया-भिक्षालाभाशया 'पविढे समाणे' प्रविष्टः सन् ‘से जं पुण एवं जाणिज्जा' स यदि पुनरेवं वक्ष्यमाणरीत्या जानीयात, 'असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अशनं वा पानं वा खादिमं वा स्वादिमं वा चतुर्विधम् आहारजातम् 'आउकायपइट्ठियं चेवं' अप्कायप्रतिष्ठितम्-अप्कायिकजीवोपरि स्थापितं वर्तते तर्हि चैवम्-पृथिवीकायिकरीत्या तथाविधम् अप्कायोपरिस्थापितम् अशनादिकं चतुर्विधमाहारजातम् अप्रामुकं सचित्तम् अनेषणीयम् आधाकर्मादिदोषयुक्तं मन्यमानो लाभे सति न प्रतिगृह्णीयात, 'एवं अगणिकायपइद्वियं' एवम् उपर्युक्तरीत्या अशनादिकं चतुर्विधमाहारजातम् अग्निकायप्रतिष्ठितम्-अग्निकायिकजीवोपरि संस्थापितं वर्तते तर्हि तथाविधमपि अग्निकायोपरिस्थापितम् अशनादिकं चतुर्विधमाहारजातम् अप्रासुकं सचित्तम् अनेषणीयं मन्यमानः 'लाभे संते णो पडिगाहिज्जा' लाभे सति नो प्रतिगृह्णीयात्, तनिषेधकारणमाह 'केवली बूया' केवली केवलज्ञानी तीर्थकरो भगवान् ऐसा वक्ष्यमाणरीति से जान ले कि 'असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइम या अशनादि चतुर्विध अहार जात 'आउकाय पइडियं' सचित्त अप्काय पर रक्खा हुआ है इसीतरह सचित्त 'अगणिकायपइट्टियं' अग्निकाय पर रक्खा हुआ है तो 'लाभे संते णो पडिगाहिज्जा' मिलने पर भी नहीं ले अर्थात् पूर्वोक्त पृथिवीकायिक की रीति से अप्कायिक जीव के ऊपर स्थापित अशनादि चतुर्विध आहार को अप्रासुक-सचित और अनेषणीय-आधाकर्मादि दोषों से युक्त सझकर भिक्षा के लिये मिलने पर भी साधु और साध्वी उसे ग्रहण नहीं करे, इसी तरह उपर्युक्तरीति अग्निकाय जीव ऊपर भी स्थापित अशनादि चतुविध आहार जात को भी अमातुक-सचित और अनेषणीय-आधाकर्मादि दोषों से युक्त समझकर मिलने पर भी साधु और साची नहीं ग्रहण करे, क्योकिंकेवली बूया' केवल ज्ञानी भगवान् वीतराग महावीर स्वामी ने कहा है कि'अयागमेयं एतत्-अग्निकाय जीव के ऊपर स्थापित अशनादि चतुर्विध आहार जात आदान-कर्मागमन-कर्मबन्धन का कारण होता है इसलिये इस प्रकार के पुण एवं जाणिज्जा' ने मा10 पामा मापना२ ते तणी से है 'असणं या पाणं वा खाइम वा साइम वा' अशन, पान, माहिम मने पाहिम यतुर्विध माडा२ and 'आउ. कायपइद्रिय चेवं' ५४५ वान। 6५२ २॥स छ तभा एवं अगणिकायपइट्रियं' मनि કાયની ઉપર રાખેલ છે તે તેવા પ્રકારના અશનાદિ ચતુર્વિધ આહાર જાતને અપ્રાસુકसथित डावाची मनेषणीय भानीने 'लाभे संते णो पडिगाहिज्जा' मजा छतां ५५ अर ન કરે. અર્થાત્ પૂર્વોક્ત પૃથ્વીકાયિકના સંબંધમાં કહ્યા પ્રમાણે અષ્ઠાયિક અગર અગ્નિકાયના ઉપર રાખેલ અશનાદિ આહાર જાતને અપ્રાસુક અને આધાકર્માદિ દેષ યુક્ત હેવાથી અનેષણય સમજીને મળવા છતાં ભિક્ષા માટે તેને સાધુ સાધ્વીએ ગ્રહણ કરે નહી. भ3-'केवलीबूया' १८ ज्ञानी लगवान् महावीर स्वामी युं छे 3-'आयाणमेय' माय मया ममियनी ५२ रामे मशन यतुविध माडार Mत 'आदान' शर्मा श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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