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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंघ २ उ. ५ सू. ५० पिण्डैपणाध्ययननिरूपणम् १३१ 'णो अवंगुणिज्ज वा' नो उदघाटयेद वा-उद्घाटनं न कुर्यात, तथा 'णो अवंगुणिज्ज वा पविसिग्ज वा णिक्खमिज वा' उद्घाटय वा-उद्घाटनं कृखा वा प्रविशेद् वा निष्कामेद् वा गृहपतेरनुमति विना द्वारमुद्घाटय गृहे प्रवेशं न कुर्यात, नापि ततो निष्क्रमणं विदध्यादित्यर्थः, तथा सति गृहपतिः प्रद्वेष कुर्यात्, केनचित् अपहते च वस्तुनि साधुविषयिणी शङ्का वा उत्पघेत, उद्घाटि ते द्वारे च पश्वादीनां प्रवेशः स्यात् इत्यादि बहुदोषदर्शनात् संयमात्मविराधना स्यादिति भावः । किन्तु कारणविशेषे सति अपवादरूपेणाह-'ते सिं पुवामेव उग्गई अणुनविय' तेषां गृहपतीनां पूर्वमेव-गृहप्रवेशात्प्रागेव अवग्रहम्-आज्ञाम्' अनुमतिम् अनुज्ञाप्य-याचित्वा गृहीत्वा, येषां तदगृहं वर्तते तेषामनुमति पूर्वमेव गृहीत्वेत्यर्थः 'पडिले हिय पडिलेहिय' प्रतिलेख्य प्रतिलेख्य पुनः पुनः चक्षुभ्यां प्रत्युपेक्षणं कृता 'पमज्जिय पमज्जिय' प्रमायं प्रमाय-रजोहरणादिना पौनः पुन्येन प्रमार्जनं कृत्वेत्यर्थः उस गृहपति की अनुमति को प्रवेश करने से पहले लिये विना ही 'अपाडिलेहिय' एवं प्रतिलेखन-आखों से प्रत्युपेक्षण किये बिना ही तथा सदोरक मुखवस्त्रिका बन्धन पूर्वक रजोहरणादि से 'अपमज्जिय' प्रमार्जन किये विना ही उस के वन्द गृह द्वार को 'अवंगुणिज्जवा' उद्घाटित नहीं करना चाहिये एवं उस गृहस्थ श्रावक के घर के द्वार को उधारकर उस की अनुमति के बिना 'पविसिज्जया' प्रवेश भी नहीं करना चाहिये तथा वहां से भिक्षालेकर 'णिक्खमिज्ज वा' निकलना भी नहीं चाहीये अर्थातू उस की आज्ञा के वीना नहीं जाना चाहीये __ अब आचार्यादि के अस्वास्थ्य की परिस्थिति वश या दुर्लभ द्रव्यादि के कारण अथया अवमौदर्य होने से अपवाद रूप में कहते हैं 'तेसिं पूवामेव उग्गहं अपुण्णविय' उन गृहति-गृहस्थ श्रावकों की अनुमति या आज्ञा गृहमें प्रवेश करने से पहले ही लेकर अर्थात् जिनका वह घर है उनकी अनुमति पहले ही लेकर और 'पडिलेहिय पडिलेहिय' प्रतिलेखन भी बारबार से भडमा प्रवेश ४२ता पडतां ये गृहपतिनी अनुमति सिधा पिना 'अपडिलेहिय माजा. थी प्रत्युपेक्षा या विना तथा 'अपमज्जिय' सो२४ भुमपनिम धनपूर्व हरणाहिया प्रभारी अर्या विना 'णो अवंगुणिज्ज वा' से ५ वारने घाउ नये भय। 'पविसिज्ज वा णिक्खमिज्ज वा' से गृहस्थना घना बारने उघाडीने तेनी मनु. મતિ શિવાય તેમાં પ્રવેશ કરે નહીં તથા ત્યાંથી ભિક્ષા લઈને નીકળવું પણ નહી. અર્થાત્ ગૃહપતિની આજ્ઞા ત્રિના જવું ન જોઈએ. હવે આચાર્યાદિના અસ્વાથ્યની પરિસ્થિતિ વશાત્ અથવા દુર્લભ દ્રવ્યાદિના કારણે ५५५५५मोहय वायी अ५१४ ३२ सूत्र४४२ ४३ छ. 'ते सि पुवामेब उग्गहं अणुण्णविय' से पतिनी समति मा प्रवेश ४२di पखi ravन तथा 'पडिलेहिय पडिलेहिय' पाया२ मामयी प्रत्युपेक्षा ५रीन. अर्थात् सपन शन तथा 'पमज्जिय पमज्जिय' श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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