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________________ १९१२ आचारांगसूत्रे भावना प्रथममहाव्रतस्य प्ररूप्यते-'आलोइयपाणभोयणभोई से निग्गथे' आलोचितपानभोजनभोजी-यो विवेकपूर्वकं दृष्ट्वा आहारपानं करोति स निग्रन्थः साधुरुच्यते 'नो अणालोइयपाणभोयण भोई नो अनालोचितपानभोजनभोजी-आलोचनं विनैव यो भोजनं पानश्च करोति स न निर्ग्रन्थः इत्यर्थः यतः केवली बूया-आयाणमेयं केवली-केवलज्ञानी भगवान् याद-माह किम् इति आदानम् एतत्-आलोवनं विनैव पानभोजनम् कर्मबन्धकारणं भव. तीति, तत्र हेतुमाह-'अणालोईयपाण भोयणभोई से निग्गंथे' अनालोचितपानभोजनभोजीआलोचनं विनैव पानभोजनकर्ता स निर्ग्रन्थः साधुः 'पाणाणि वा भूयाणि वा जीवाई वा सत्ताई वा' प्राणिनो वा भूतानि वा जीवान् वा सत्त्वानि वा 'अभिहणिज्ज वा जाव उदविजवा' अभिहन्याद् वा, यावत्-वर्तयेद् वा परितापयेद् वा संश्लेषयेद् वा उद्रावयेत् वा जीवननिरूपण करते हैं-'अहावरा पंचमा भावणा'-अथ यह अपरा अन्या पांचवी भावना समझनी चाहिये कि जो साधु-'आलोइय पाण भोयणभोई से निग्गंथे' आलोचित पान भोजन भोजी याने विवेक पूर्वक देख भाल कर आहार पान करता है वही सच्चा साधु माना जाता है कितु-'णो अणालोइयपाणभोयण भोई, जो अनालोचित पानभोजन भोजी साधु है अर्थात् जो भोजनादि जात को आलोचना किये विना ही पान भोजन करने वाले होते हैं वह निर्ग्रन्थ साधु नहीं माना जा सकता क्योंकि-'केवलीबुया' केवलज्ञानी भगवान् श्री महावीर स्वामी ने कहा है कि 'आयाणमेयं' यह आलोचना देखभाल करने के विना हो पान भोजन करना आदान कर्मबंधन का कारण माना जाता है क्योंकि-'अणालोईय पाणभोयणभोई से निग्गथे' पालोचन के बिना ही पान भोजन करने वाला निर्ग्रन्थ साधु 'पाणाणि वा भूयाणि वा जीवाइं वा सत्ताई वा अभिहणिज्ज वा' प्राणों को भूतों को जीवों को सत्वों को मारेगा और-'जाव उद्दविज वा' यावत् ४२वामां आवे छे.-'अहावरा पंचमी भावणा' के अन्य पायभी मापनानु.५३५ पानां भाव छ. 'आलोइय-पाणभोयण भोइ से निग्गंथे' र साधु आसयत पान न मोड અર્થાત્ વિવેક પૂર્વક જોઈ તપાસીને આહારપાન કરે છે. એ જ સાચા નિગ્રંથ છે. પરંતુ 'णो अणाइलायणपाणभायणभोई' रे मनासोयित पान मोशन साल साधु छ. अर्थात જે ભેજનાદિ પદાર્થનું આલયન કર્યા વિના પાનભેજન કરવાવાળા હોય તેઓ નિન્ય साधु यात नथी.-भ3-'केरलीबूया आयाणमेयं' ज्ञानी भगवान् श्रीमहावीर સ્વામીએ કહ્યું છે કે આલેચન અર્થાત્ જોઈ તપાસ્યા વગર જ પાન ભેજન કરવું તે माहान अर्थात् ४मधनु ४२९ मानवामां आवे छे. भ3- 'अणालोईय-पाण भोयण भोई से निग्गंथे' सायन ४ा १५२१ पान Airt ४२११न -५ साधु 'पाणाणि वा भूयाणि वा' प्राणाने तथा भुताने 'जीवाई वा सत्ताई वा' यार , सत्वान अमिहणिज्ज वा' भारशे मन 'जाव उद्दविज्ज वा' यावत् भूमि ५२ प्राणियोन भा२१। भाटे थे। श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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