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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ सू० १० अ. १५ भावनाध्ययनम् ११११ 'से निथे पाणाई भृगाई जीवाई सत्ताई' स निर्ग्रन्थः साधुः प्राणिनः भूतानि जीवान् सखानि 'अभिहणि व जात्र उद्दविज्ज वा' अभिहन्याद् वा, यावत्-वर्तयेद् वा हन्तुम् एकत्रितान् वा कुर्यात्, परितापयेद् वा संश्लेषयेद् वा उद्भावयेद् वा जोवनरहितान् वा कुर्यात् इत्यर्थः 'तर हा आयाण मंडमत्तनिक खेवणासमिए से निग्गंथे' तस्मात् उक्तकारणात् आदानभाण्डमात्र निक्षेपणासमितः आदानभाण्डपात्रोपकरणग्रहणोत्थापनसंस्थापनसमितियुक्तः स निर्ग्रन्थः साधुच्यते 'नो आयाणभंड मत्तनिवखेपणाऽसमि एत्ति' नो आदानभ ण्डमात्र निक्षेपणाऽसमितः- नो भाण्डपात्राद्युपकरणग्रहणोत्थापन संस्थापनसमितिरहितः साधुः निर्ग्रन्थः स्यादिति 'चउत्था भावणा' चतुर्थी भावना प्रथममहात्रतस्य अवगन्तव्येति भावः सम्प्रति पञ्चम भावनां प्ररूपयितुमाह- 'अहावग पंदमा भावणा' अथ अपरा अन्या पञ्चमी से रहित साधु 'से निथे पाणाई भूयाइं जीवाई सत्ताई' निर्ग्रन्थ प्राणों का भूतो का जीवों का और सत्वों का 'अभिहणिज वा' हनन करेगा एवं 'जाय उद्दवि. ज्जया' यावत् हनन करने के लिये एकत्रित करेगा और परितापन भी करेगा तथा संश्लेषण याने भूमि पर संबंध कर संयुक्त भी करेगा एवं उद्भावण याने जोवन रहित भी कर डालेगा 'तम्हा आयाण मंडमत्तनिवखेवणा' आदान भाण्ड पात्र निक्षेपणा 'समिए से निग्गंथे' समिति युक्त होकर ही भाण्ड पात्रादि उपकरण जात को ग्रहण करें एवं उत्थापन तथा संस्थापन भी यतना पूर्वक ही करें वही निर्ग्रन्थ हो सकता है याने सच्चा साधु कहा जाता है इसलिये 'णो आयाण भंडमत्तनिक्खेवणाऽसमिएत्ति' आदान भाण्ड पात्र निक्षेपणा समिति से रहित साधु वास्तव में निर्गन्ध नहीं हो सकता क्योंकि यतना पूर्वक ही भाण्डादि उपकरण जात को रखना चाहिये इस प्रकार प्रथम महाव्रत की 'चउत्था भावणा' यह चौथी भावना समझनी चाहिये । अब सर्व प्राणातिपात विरमण रूप प्रथम महाव्रत की पाँचवी भावना का निक्षेप स्थापनानी समिति अर्थात् यतनाथी रहित छे, 'से निग्गंथे पाणाई भूयाई' ते साधु निर्थन्थ प्रानु भूतेनु' 'जीवाई, सत्ताईं, अभिहणिज्ज वा' वा भने सत्यनु हुनन १२शे. शेव 'जाव उहविज्ज वां खने यावत હનન કરવા માટે એકડા કરશે અને પરિતાષિત પણ કરે તથા સશ્લેષણ અર્થાત ભૂમિ પર સંબદ્ધ કરીને સંયુક્ત પણ १२शे भने उद्रावण अर्थात् लवन रहित पशु ४२ 'तम्हा आयाणभंडमत्त निक्खेवणा સમિલ્ કે સિ ંથે' તેથી આદાન ભડપાત્ર નિક્ષેપણા સમિતિથી યુક્ત થઈને જ ભાંડ પત્રાહિં ઉપકરણેને ગ્રતુણુ કરવા તથા ઉત્થાન અને સંસ્થાપન પણ્ યતના પૂર્ણાંક જ કરવુ જોઇએ. तेथ 'णो आयाणमंडमत्त निक्खेवणाऽसमिएत्ति चत्थी भावणा' आहान लांडे यात्र निक्षेपणा સમિતિથી રહિત સ ધુ વાસ્તવિક રીતે નિગ્રન્થ નથી. કેમ કે યતના પૂર્વીક જ ભાંડાર્દિ ઉપકરણા રાખવા જોઇએ. આ રીતે પ્રથમ મહાવ્રતની આ ચેાથી ભાવના સમજવી. હવે સવ પ્રાણાતિપાત વિરમણુરૂપ પહેલા મહાવ્રતની પાંચમી ભાવનાનું નિરૂપણ શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૪
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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