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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ सू० १० अ. १५ भावनाध्ययनम् रहितान् वा कुर्यात 'तम्हा आलोइयपाणभोयणभोई से निग्गंथे' तस्माद-उक्तहेतोः आलो. चितपानभोजनमोजी-आलोचनपूर्वकयानमोजनकर्ता स निर्गन्धः साधुरुच्यते 'णो अणालोईयपाणभोयणभोईति' नो अनालोचितपान भोजन भोजी-नो आलोचनं विनैव पान भोजनकर्ता निर्ग्रन्थः स्यादिति 'पंचमा भावणा' पञ्चमी भावना प्रथममहाव्रतस्य अवगन्तव्या इति । सम्प्रति प्रथम महाव्रतमुससंहरनाह-'एयावया महव्वए सम्म कारण फासिए' एतावताअनेन उक्तप्रकारेण प्रथमं महाव्रतम् सम्यक्तया कायेन-शरीरेण स्पर्शितम् पालिए तीरिए किट्टिए' पालितम् तीर्णम-पारितं कीर्तितम् 'अपट्टिए आणाए आराहिए यावि भवई' भूमि पर प्राणियों को मारने के लिये एकत्रिन करेगा एवं परितापन भी करेगा तथा संश्लिष्ट भी करेगा एवं उपद्रवित भी करेगा याने प्राणियों को जीवों को जीवन रहित भी कर डालेगा-'तम्हा आलोइयपाण मोयण'-इसलिये आलोचित पान भोजन 'भोइ से निग्गथे' भोजी याने आलोचन कर अच्छी तरह देखभाल करके पान भोजन करनेवाला साधु सच्चा निर्घन्ध जैन साधु हो सकता है किंतु ‘णो अणालोइयपाणभोयणभोइत्ति' अनालोचिन पान भोजन भोजी याने आलोचन करने के विना ही पान भोजन करनेवाला साधु वास्तव में सच्चा निन्ध नहीं हो सकता है इस प्रकार प्रथम महावत की याने सभी प्रकार के प्राणातिपात से विरमण रूप प्रथम महाव्रत की 'पंचमा भावणा' यह पांचवी भावना समझनी चाहिये। ___अब उक्त प्रथम महावत का उपसंहार करते हुए कहते हैं कि-'एयावया महन्वए सम्मं काएण' एतावता अर्थातू उक्त रीति से प्रथम महावत की अच्छी तरह शरीर द्वारा-'फासिए पालिए तीरिए किहिए' पशित पालित तथा तारित एवं कीर्तीत तथा 'अवट्टिए' अवस्थापित एवं याने सुरक्षित और 'आणाए आरा. કરે તથા પરિતાપિત કરે અને સંક્ષિપ્ત પણ કરે અને ઉદ્રવિત પણ કરશે અર્થાત્ प्राणियो याने सन २हित ४२ 'तम्हा आलोइयपाणभोयणभोई से निगंथे' तथा આચિત પાન ભજન ભેજી એટલે કે આલોચન કરીને સારી રીતે જોઈ તપાસી પાન सासन ४२वावा॥ साधु साया नियन्य रैन साधु उपाय छे. परंतु णो अणालोइय पाणभोयणभोइत्ति' मनालायित यान मन छ यर्थात् सोयन विन or पान न ४२११साधु वास्ता: रीत साया नियन्य नथी. 'पंचमी भावणा' આ પ્રમાણે પહેલાં મહાવ્રતની અર્થાત્ બધા પ્રકારના પ્રાણાતિપાતથી વિરમણરૂપ પહેલાં મહાવ્રતની પાંચમી ભાવના સમજવી. वे त पडसा भडामतना ५स डा२ ४२ता सूत्रा२ ४छ.-'एयावया महत्वए सम्मं काएण' त ४थी पडे महाबत शरीरथी 'फासिए' १५शित 'पालिए' पारित 'तीरिए' तारित ने 'किट्टिए' ति तथा 'अवटिए' अवस्थापित अर्थात् सुरक्षित बने आ० १४० श्री मायारागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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