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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ सू. १ अ. १५ भावनाध्ययनम् वित्तः सन् , अव्यथितः अनुद्विग्नः स्थिरतापूर्वकमित्यर्थः 'अहीण माणसे' अदीनमानस: प्रसन्नचित्तः 'तिविहमणवयणकायगुत्ते' त्रिविध मनोयच नकायगुप्तः त्रिविधेन मनसा वचसा वपुषा च गुप्तः सन् ‘सम्म सहइ खम तितिक्खइ अहियासेइ' सम्यक् सम्यक्तया सहते, क्षमते उपसर्गदातृभ्यः क्षमां कुरुते तितिक्षते-अदीनमनसा सहते, अध्यास्ते-निश्चलभावेन सहनं करोतीत्यर्थः सम्प्रति भगवतो महावीरस्य केवलज्ञानोत्पत्तिप्ररूपयन्नाह-'तओ णं समणस्प्त भगवभो महावीरस्स' ततः खलु-त्रिविधोक्तोपसर्गपहनानन्तरम् श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य 'एएणं विहारेणं विहरमाणस्स' एतेन-उपर्युक्तप्रकारेण विहारेण विहरमाणस्य विच. अर्थात अनुद्विग्न होकर याने उद्विग्नता रहित होकर स्थिरता पूर्वक 'अदीण माणसे' अदीन मानस होकर याने प्रसन्नचित्त होकर 'तिविहं मणवयणकायगुत्ते' त्रिविध मन वचन काय से गुप्त होकर याने मन से वचन से और काय शरीर से गुप्त होकर अर्थात् कायिक वाचिक मानसिक रूप तीन गुप्तियों से युक्त होकर 'सम्मं सहई' सम्यकूतया सहन करते थे और उन आध्यात्मिक और आधि. दैविक तथा आधिभौतिक उपसर्ग रूप विघ्नबाधाओं को देनेवाले देव मनुष्य और तिर्यग् प्राणियों से 'खमई क्षमा करते हैं 'तितिक्खई' तितिक्षा करते थे अर्थात् अदीन मनसे याने प्रसन्न चित्त से सहन करते थे,और 'अहियासेइ' निश्चल भाव से सहन करते थे इस प्रकार भगवान् श्री महावीर स्वामी पूर्वोक्त प्रतिज्ञा का पालन करने में तत्पर हो गये और तपश्चर्या में रत होकर ध्यान निमग्न हो गये अब भगवान् श्री महावीर स्वामी के केवलज्ञानोत्पत्ति का निरूपण करते हैं-'तओणं समणस्स भगवो महावीरस्स एएणं विहारेणं विहरमाणस्स' ततः भव्यथित अर्थात् दिम थया विना थेट स्थिरता ४ 'अदीणमाणसे' महीन मानस वा ५४२ मेट प्रसन्न यित्त युत ४२ 'तिविहे मणवयणकायगुत्ते' ३ ४२नी गुलियोथी युक्त ने 'सम्म सहइ' सारीरीते सहन ४२ता उता. तथा 'खमइ' से આધ્યાત્મિક અને આધિદૈવિક તથા અધિભૌતિક ઉપસર્ગરૂપ વિધ્ર બાધાઓને આપનારા દેવ, भनुष्य मने तिय योनि प्राणियो क्षमा ४२ता ता तथा 'तितिक्खइ' तितिक्षा ४२ता ता. मात् महीनभनथी मेले में प्रसन्न माथी सन ४२तात. तथा 'अहियासेइ' નિશ્ચલ ભાવથી સહન કરતા હતા. આ પ્રમાણે ભગવાન શ્રી મહાવીર સ્વામી પૂર્વોક્ત પ્રતિજ્ઞાના પાલન કરવામાં તત્પર થઈને તપશ્ચર્યામાં રત થઈને ધ્યાન નિમગ્ન રહેતા હતા, હવે ભગવાન શ્રી મહાવીર સ્વામીને કેવળજ્ઞાનોત્પત્તિનું નિરૂપણ કરવામાં આવે છે.'तओ ण समणस्स भगवओ महावीरस्स' ते ५छ। अर्थात श्रम लगवान् श्रीमहावीर स्वामी દ્વારા ત્રણ પ્રકારના (આધ્યાત્મિક-આધિદૈવિક-અને આધિભૌતિક) ઉપસર્ગો સહન કર્યા પછી आ० १३७ श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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