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________________ श्रुतस्कन्ध. १ धूताख्यान अ. ६. उ. ४ ___३२१ मूलम्-सीलमंता उवसंता संखाए रयिमाणा 'असीला' अणुवयमाणस्स बितिया मंदस्स बालया ॥ सू०४॥ ___ छाया--शीलवन्त उपशान्ताः संख्यया रीयमाणाः 'अशीलाः ' अनुवदतः द्वितीया मन्दस्य बालता ।। मू० ४॥ ___टीका--ये साधवः शीलवन्तः अष्टादशशीलाङ्गसहस्रधराः, यद्वा महाव्रतपञ्चेन्द्रियकषायनिग्रह-गुप्तित्रय-धारिणः, अतएव उपशान्ताः क्षान्त्यादिगुणयुक्ताः, 'शीलवन्तः' इत्यने नैव कषायोपशमार्थस्य गतार्थत्वात्पुनः 'उपशान्ताः' इति विशेषणं कषायनिग्रहस्य माधान्यं बोधयितुमुक्तम्। तथा-सङ्ख्यया हेयोपादेयमज्ञया व्यवहार करते हैं। इसी बातको प्रकट करने के लिये सूत्रकार कहते हैं "सीलमंता" इत्यादि। जोसाधु अठारह हजार (१८०००) शीलोंके भेदोंको धारण करनेवाले हैं, अथवा पंच महाव्रतोंके पालक पंचेन्द्रियों एवं कषायोंका निग्रह करनेवाले और गुप्तित्रयके धारक हैं, तथा इसीसे जोक्षमा आदि सद्गुणोंसे विभूषित हैं, हेय और उपादेयके विवेकपूर्वक संयममार्गमें जो लवलीन हैं। उन्हें भी ये कुशील “ये अशील हैं-ये चारित्रसे रहित हैं। ऐसा कहते हैं। यह इन अवसन्न-पासत्थादिरूप कुशीलोंकी दूसरी अज्ञानता है। प्रथम तो उनकी यही बड़ी भारी अज्ञानता है--जो ये स्वयं चारित्रसे भ्रष्ट हुए हैं और दूसरी अज्ञानता यह है कि जो ये चारित्रशालियोंको भी अचारित्री-भ्रष्ट कहते हैं । सूत्रमें " शीलवन्तः” इस पदसे ही कषायोंके उप. शमनरूप अर्थकी प्रतीति हो जाती है। फिर भी "उपशान्ताः" ऐसाजो पद देकर उनका स्वतन्त्ररूपसे अभाव प्रदर्शित किया है, उसका मतलब केवल कषायोंके निग्रहकी प्रधानता प्रकट करना ही समझना चाहिये । જે સાધુ અઢારહજાર (૧૮૦૦૦) શલોના ભેદને ધારણ કરવાવાળા છે, અથવા પાંચ મહાવ્રતના પાલક પંચેન્દ્રિયે અને કષાયે નિગ્રહ કરવાવાળા અને ગુણિત્રયના ધારક છે. અને એથી જે ક્ષમા આદિ સદ્ગુણોથી વિભૂષિત છે, હેય અને ઉપાદેયના વિવેકપૂર્વક સંયમ માર્ગમાં જે લવલીન છે, એમને પણ તે કુશીલ “ આ અશીલ છે– આ ચારિત્રથી રહિત છે” એમ કહે છે, આ તે અવસન્નપાસસ્થાદિ રૂપ કુશીલેની બીજી અજ્ઞાનતા છે. પહેલી તે તેની આ મોટી અજ્ઞાનતા છે કે તે સ્વયં ચારિત્રથી ભ્રષ્ટ થઈ ગયા છે, અને બીજી અજ્ઞાનતા આ છે કે જે यात्रिजीमोने पशु अयात्रिी श्रष्ट हे छे. सूत्रमा “ शीलवन्तः " मा ५४थी ४ पायान। उपशमन३५ अर्थनी प्रतीति तय छे. छतi my उपशान्ताः " શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૩
SR No.006303
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1957
Total Pages719
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size37 MB
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