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________________ १६० जैन दर्शन और संस्कृति 'प्रतीत्य-समुत्पादवाद' कहते हैं। इस प्रकार अनेक दार्शनिक तथ्य हैं, जिन पर विचार किया जाए, तो उनके केन्द्र बिन्दु पृथक्-पृथक् नहीं जान पड़ते । समन्वय के दो स्तम्भ समन्वय वेवल वास्तविक दृष्टि से नहीं किया जाता। निश्चय और व्यवहार दोनों उसके स्तम्भ बनते हैं। निश्चय नय वस्तु-स्थिति जानने के लिए है। व्यवहार नय वस्तु के स्थूल रूप में होने वाली आग्रह-बुद्धि को मिटाता है। वस्तु के स्थूल रूप (जो इन्द्रिय प्रत्यक्ष होता है) को ही अन्तिम सत्य मानकर न चलें, यही समन्वय की दृष्टि है। पदार्थ एक रूप में पूर्ण नहीं होता। वह स्वरूप से सत्तात्मक, पररूप से असत्तात्मक होकर पूर्ण होता है। केवल सत्तात्मक या केवल असत्तात्मक रूप में कोई पदार्थ पूर्ण नहीं होता। सर्व-सत्तात्मक या सर्व-असत्तात्मक रूप जैसा कोई है ही नहीं। पदार्थ की ऐसी स्थिति है, तब नय-निरपेक्ष बनकर उसका प्रतिपादन कैसे कर सकते हैं? इसका अर्थ यह नहीं होता कि नय पूर्ण सत्य तक ले नहीं जाते। वे ले जाते अवश्य हैं, किन्तु सब मिलकर। एक नय पूर्ण सत्य का- एक अंश होता है। वह अन्य नय-सापेक्ष रहकर सत्यांश का प्रतिपादक बनता है। नय वस्तु के अन्य अंशों का निराकण न करने वाले तथा उसके एक अंश को ग्रहण करने वाले ज्ञात के अभिप्राय को नय कहा जाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो अनन्त धर्मात्मक वस्तु के विवक्षित अंश का ग्रहण तथा शेष अंशों का निराकरण न करने वाले प्रतिपादक का अभिप्राय नय कहलाता है। एक धर्म (वस्तु-स्वभाव या वस्तु-गुण) का ज्ञान और धर्म का वाचक शब्द-ये दोनों नय कहलाते हैं। ज्ञानात्मक नय को 'नय' और वचनामक नय को 'नय-वाक्य' या 'सद्वाद' कहा जाता है। नय-ज्ञान विशेषणात्मक होता है, इसलिए यह मानसिक ही होता है; ऐन्द्रियक नहीं होता। नय से अनन्तधर्मक वस्तु के एक धर्म का बोध होता है। इससे जो बोध होता है, वह यथार्थ होता है, इसीलिए यह प्रमाण है, किन्तु इससे अखण्ड वस्तु नहीं जानी जाती, इसलिए यह पूर्ण प्रमाण नहीं बनता। यह एक समस्या बन जाती है। दार्शनिक आचार्यों ने इसे यों सुलझाया कि अखण्ड वस्तु के निश्चय की अपेक्षा से नय प्रमाण नहीं है। वह वस्तु-खण्ड को यथार्थ रूप से ग्रहण करता है, इसलिए अप्रमाण भी नही है। अप्रमाण तो है ही नहीं, पूर्णता की अपेक्षा प्रमाण भी नहीं है, इसलिए इसे प्रमाणांश कहना चाहिए।
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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