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________________ समन्वय का राजमार्ग : नयवाद सत्य का व्याख्या द्वार सत्य का साक्षात् होने के पूर्व सत्य की व्याख्या होनी चाहिए। एक सत्य के अनेक रूप होते हैं । अनेक रूपों की एकता और एक की अनेकरूपता ही सत्य है । उसकी व्याख्या का जो साधन है, वही नय है । सत्य अपने आप में पूर्ण होता है। न तो अनेकता - निरपेक्ष एकता सत्य है और न एकता -निरपेक्ष अनेकता । एकता और अनेकता का समन्वित रूप ही पूर्ण सत्य है । सत्य की व्याख्या वस्तु, क्षेत्र, काल और अवस्था की अपेक्षा से होती है । एक के लिए जो गुरु है, वही दूसरे के लिए लघु, एक के लिए जो दूर है, वही दूसरे के लिए निकट, एक के लिए जो ऊर्ध्व है, वही दूसरे के लिए निम्न, एक के लिए जो सरल है, वही दूसरे के लिए वक्र । अपेक्षा के बिना इनकी व्याख्या नहीं हो सकती । गुरु और लघु क्या है ? दूर और निकट क्या है ? ऊर्ध्व और निम्न क्या है ? सरल और वक्र क्या है ? वस्तु, क्षेत्र आदि की निरपेक्ष स्थिति में इसका उत्तर नहीं दिया जा सकता, क्योंकि पदार्थ अनन्त गुणों का सहज सामंजस्य है । उसके सभी गुण-धर्म या शक्तियाँ अपेक्षा की श्रृंखला में गुँथे हुए हैं। एक गुण की अपेक्षा से पदार्थ का जो स्वरूप है, वह उसकी अपेक्षा से है, दूसरे की अपेक्षा से नहीं । अभ्यास १. सापेक्ष दृष्टि को सरल शब्दों में स्पष्ट करें । २. सापेक्ष दृष्टि से विभिन्न मतों का समन्वय कैसे ३. प्रवृत्ति और निवृत्तिं या श्रद्धा और तर्क के दृष्टि कारगर हो सकती है ? समझाकर लिखिए | १६१ ५. किया जा सकता है ? बीच में भी क्या सापेक्ष ४. नय या स्यादवाद किसे कहते हैं ? नयवाद से वस्तु - विश्लेषण किस प्रकार किया जा सकता है। निश्चय नय और व्यवहार नय का क्या तात्पर्य है ? 000
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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