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________________ १५९ समन्वय का राजमार्ग : नयवाद सके, यह अत्यन्त खेद की बात है। यदि ऐसा हुआ होता, तो सत्य का मार्ग इतना कँटीला नहीं होता। समन्वय की दिशा बताने वाले आचार्य नहीं हुए, ऐसा भी नहीं। अनेक आचार्य हुए हैं, जिन्होंने दार्शनिक विवादों को मिटाने के लिए प्रचुर श्रम किया। इनमें हरिभद्र आदि अग्रस्थानीय हैं। आचार्य हरिभद्र ने कर्तृत्ववाद का समन्वय करते हुए लिखा है-“आत्मा में परम ऐश्वर्य, अनन्त शक्ति होती है, इसलिए वह ईश्वर है और वह कर्ता है। इस प्रकार कर्तत्ववाद अपने आप व्यवस्थित हो जाता है।" __ जैन दर्शन ईश्वर को कर्ता नहीं मानता, नैयायिक आदि मानते हैं। अनाकार ईश्वर का प्रश्न है, वहाँ तक दोनों में कोई मतभेद नहीं/ नैयायिक आदि ईश्वर के साकार रूप में कर्तृव्य बतलाते हैं और जैन दर्शन मनुष्य में ईश्वर बनने की क्षमता बतलाता है। नैयायिकों के मतानुसार ईश्वर का साकार अवतार कर्ता है और जन-दृष्टि से ऐश्वर्य-शक्ति-सम्पन्न मनुष्य कर्ता है, इस बिन्दु पर सत्य अभिन्न हो जाता है, केवल विचार-पद्धति का भेद रहता है। परिणाम, फल या निष्कर्ष हमारे सामने होते हैं, उनमें विशेष विचार-भेद नहीं होता। अधिकांश मतभेद निमित्त, हेतु या परिणाम-सिद्धि की प्रक्रिया में होते हैं। उदाहरण के लिए एक तथ्य ले लीजिये-ईश्वर-कर्तृत्ववादी संसार की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय मानते हैं। जैन, बौद्ध आदि ऐसा नहीं मानते । दोनों विचारधाराओं के अनुसार जगत् अनादि-अनन्त है। जैन-दृष्टि के अनुसार असत् से सत् उत्पन्न नहीं होता। बौद्ध-दृष्टि के अनुसार सत्-प्रवाह के बिना सत् उत्पन्न नहीं होता। जन्म और मृत्यु, उत्पाद और नाश बराबर चल रहे हैं, इन्हें कोई अस्वीकार नहीं कर सकता। अब भेद रहा सिर्फ इनकी निमित्त प्रक्रिया में। सृष्टिवादियों के सृष्टि, पालन और संहार के निमित्त हैं—ब्रह्मा, विष्णु और महेश । जैन पदार्थ-मात्र में उत्पाद, व्यय और धौल्य मानते हैं। पदार्थ-मात्र की स्थिति स्व-निमित्त से होती है। उत्पाद और व्यय स्व-निमित्त से होते ही हैं और पर-निमित्त से भी होते हैं। बौद्ध उत्पाद और नाश मानते हैं, स्थिति सीधे शब्दों में नहीं मानते किन्तु सन्तति-प्रवाह के रूप में भी स्थिति भी उन्हें स्वीकार करनी पड़ती है। जगत् का सूक्ष्म या स्थूल रूप में उत्पाद, नाश और धौव्य चल रहा है, इसमें कोई मतभेद नहीं। जैन-दृष्टि के अनुसार सत् पदार्थ त्रिरूप हैं, और वैदिक दृष्टि के अनुसार ईश्वर त्रिरूप है। मतभेद सिर्फ इसकी प्रक्रिया में है। निमित्त के विचार-भेद से प्रक्रिया को नैनायिक ‘सृष्टिवाद', जैन ‘परणामि-नित्यवाद' और बौद्ध
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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