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________________ प्रतिष्ठा का अर्थ विन्यास एवं प्रकार ...5 प्रतिमा की पूजा करने से भी पूजा का फल प्राप्त होता हो तो प्रत्येक पत्थर की पूजा से उसका फल प्राप्त करने में आपत्ति आयेगी अर्थात किसी भी पत्थर को पूजने से इच्छित लाभ नहीं मिलता है। ___ समाधान- इसका समाधान करते हुए उपाध्याय यशोविजयजी कहते हैं कि बाह्य प्रतिमा में प्राण-प्रतिष्ठा उपचार से होती है, क्योंकि षोडशक प्रकरण की टीका में यशोभद्रसूरि ने बताया है कि बाह्य जिन प्रतिमा में की गई प्रतिष्ठा स्वयं के बहिर्भावों के उपचार द्वारा जाननी चाहिए। मुख्य तो वीतराग स्वरूप के अवलंबन से जागृत होने वाला आत्मा का भाव ही प्रतिमा में आरोपित किया जाता है। इस प्रकार जिस देव का स्वरूप प्रतिमा में आरोपित करते हैं उसी को लक्षित करके यह कहा जाता है कि वे ही यह वीतराग भगवान है।12 प्रस्तुत समाधान का आशय यह है कि प्रतिष्ठाकर्ता स्वयं में भाव अरिहंत के स्वरूप का अवधारण करता है और तद्रूप भावों का ही आरोपण प्रतिमा में किया जाता है इससे प्रतिमा प्रतिष्ठित होती है। इस रीति से प्रतिष्ठित हुई प्रतिमा को देखने से भक्त को यह बुद्धि उत्पन्न होती है कि 'यह वीतराग सर्वज्ञ परमात्मा है।' इस प्रकार स्थापना अरिहंत में भाव अरिहंत का अभेद उपचार होता है। शंका- दूसरा प्रश्न यह उठता है कि प्रतिमा में की गई प्राण प्रतिष्ठा वीतराग के अभेद उपचार द्वारा प्रतिमा को पूज्य बनाती है, ऐसा माना जाये तो उस अभेद उपचार (अभेद अध्यवसाय) का नाश होने पर उस प्रतिमा में अपूज्य भाव (अप्रतिष्ठित भाव) की आपत्ति आयेगी, क्योंकि पूज्यता प्रयोजक की अभेद बुद्धि का वहाँ अभाव है? समाधान- उपर्युक्त कथन उचित नहीं है क्योंकि प्रतिष्ठित प्रतिमा में अभेद उपचार बुद्धि का नाश होने पर भी प्रतिष्ठाकर्ता के निजभाव के उपचार द्वारा प्रतिमा में किया गया उपस्थित विशिष्ट स्वभाव नष्ट नहीं होता है इसलिए अभेद उपचार से प्रतिष्ठित प्रतिमा के अपूज्य होने का कोई अवकाश नहीं रहता। इसका स्पष्टार्थ है कि स्वभाव दो प्रकार के होते हैं अनुपचरित और उपचरित। उसमें उपचरित स्वभाव भी दो प्रकार का है-स्वाभाविक उपचरित स्वभाव और औपाधिक उपचरित स्वभाव। आत्म स्वभाव का अनुसरण करते हुए उपचार से प्रकट हुआ स्वभाव स्वाभाविक उपचरित स्वभाव कहलाता है तथा प्रतिमा में केवलज्ञानादि गुणों का उपचार करने पर उसमें जो स्वभाव उत्पन्न
SR No.006251
Book TitlePratishtha Vidhi Ka Maulik Vivechan Adhunik Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages752
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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