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________________ 4... प्रतिष्ठा विधि का मौलिक विवेचन प्रत्येक संसारी आत्मा कर्म से मलीन है। आत्मागत कर्ममल को विनष्ट करने का सामर्थ्य जिनवचन स्वरूप अग्नि की क्रिया में अर्थात जिनाज्ञा पालन में है। इस प्रकार अग्नि स्वरूप जिनवचन का अनुसरण करने से कर्मरूपी कचरा जल जाता है और आत्मा में वीतरागत्व रूपी सुवर्णत्व की प्राप्ति होती है। यही परम प्रतिष्ठा है। अनुयोगद्वार की परिभाषा के अनुसार आगमत: भाव वीतराग अवस्था भी नोआगमत: भाव वीतराग अवस्था का कारण है ऐसा यहाँ कह सकते हैं। नोआगम से भाव वीतराग अवस्था की प्राप्ति परम प्रतिष्ठा है तथा उसके कारणभूत वीतराग उद्देश्यक स्वभाव का आत्मा में स्थापन करना आगमत: भाव वीतराग अवस्था कहलाती है। संक्षेप में कहा जाए तो आत्मा में आत्म भाव की स्थापना करना ही मुख्य प्रतिष्ठा है तथा भाव में सहकारी आगम रूपी अग्नि की क्रिया से (आगमोक्त विधि पालन से) कर्म रूपी ईंधन के जलने पर सिद्ध भाव स्वरूप सुवर्णता प्रकट होती है इस कारण कर्तव्यपूर्वक बाह्य प्रतिष्ठा भी सफल होती है। उपर्युक्त प्रसंग को स्पष्ट करते हुए आचार्य हरिभद्रसूरि ने यह भी कहा है कि भाव रसेन्द्र के वेध से जैसे तांबा स्वर्ण में परिवर्तित हो जाता है वैसे ही स्वयं में वीतरागता की स्थापना करने से जीव कालान्तर में सिद्ध बनता है। यहाँ उपमा रूप भाव रसेन्द्र की अपेक्षा वीतरागता आदि की स्थापना करने का महत्त्व अधिक है कारण कि प्रधान प्रतिष्ठा द्वारा जीव में आविर्भूत वीतरागता प्रकृष्ट होती है वह किसी भी स्थिति में नष्ट नहीं होती है। स्पष्ट है कि वीतरागी जीव कभी भी रागी नहीं बनता है किन्तु रसेन्द्र द्वारा स्वर्ण में रूपान्तरित होने वाला तांबा कालान्तर में अन्य धातु रूप भी परिणमित हो सकता है क्योंकि किसी भी पुद्गल स्कंध की स्थिति असंख्य कालचक्र से अधिक नहीं है।11 शंका- यहाँ प्रश्न हो सकता है कि आत्मा में आत्मबुद्धि की स्थापना करने पर प्रतिष्ठा करने वाले व्यक्ति में ही प्रतिष्ठा की कार्यान्विती होती है, ऐसी स्थिति में प्रतिमा को उद्दिष्ट करके 'यह प्रतिमा प्रतिष्ठित है' यह व्यवहार कैसे संभव हो सकता है? कारण कि उपर्युक्त परिभाषा में आत्मा प्रतिष्ठित हुई है प्रतिमा की प्रतिस्थापना नहीं हुई है। दूसरे, अप्रतिष्ठित प्रतिमा की पूजा करने से प्रयोजक को पूजा का फल किस प्रकार प्राप्त हो सकता है? यदि अप्रतिष्ठित
SR No.006251
Book TitlePratishtha Vidhi Ka Maulik Vivechan Adhunik Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages752
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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