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________________ पंच कल्याणकों का प्रासंगिक अन्वेषण ... 257 दर्शाने एवं उनके कर्त्तव्यों का अवबोध करवाने हेतु भी यह आवश्यक है। इससे परमात्मा की त्रिलोक पूज्यता भी दर्शित होती है। जहाँ तक अथाह जल राशि के प्रयोग का प्रश्न है वहाँ सर्वप्रथम तो परमात्मा का यह अतिशय होता है कि उनके कारण किसी जीव को पीड़ा नहीं होती। फिर जो जीव परमात्मा के स्पर्श में आते हैं, वे स्वयं धन्य हो जाते हैं। दूसरा हेतु यह है कि परमात्म भक्ति में शक्ति के अनुसार द्रव्य का उपयोग करना चाहिए। देवों का सामर्थ्य यदि नंदन वन के पुष्प लाने एवं अनेक जल राशियों से जल लाने का है तो फिर वे भी अपनी शक्ति का उपयोग परमात्म भक्ति में क्यों न करें ? इस क्रिया में भावों के उर्ध्वारोहण से जो कर्म निर्जरा होती है वह जल आदि द्रव्यों के उपयोग द्वारा होने वाले कर्म बंधन से बहुत गुणा अधिक है। भगवान पार्श्वनाथ के जीव ने 500 कल्याणकों की आराधना करते-करते इतने प्रबल पुण्य का अर्जन किया कि पुरुषादानी नाम से विख्यात हुए एवं आज भी उनके आराधक वर्ग की संख्या और उनकी नाम ख्याति बढ़ती जा रही है । वर्तमान में जन्म कल्याणक के अनुकरण रूप स्नात्र पूजा पढ़ायी जाती है । कई लोग वर्तमान में हो रहे महोत्सवों को आडंबर मानते हैं तो कुछ लोग इसे हिंसा | पंच कल्याणक महोत्सव के दौरान इन उत्सवों को आडंबर मानने वाले घर में विवाह, जन्मदिन आदि कार्यक्रमों में जितना खर्चा करते हैं वह क्या है ? वह तो एक मिथ्या निमित्त को लेकर किया जाने वाला मात्र कर्म बंधन है । जबकि इस आयोजन के माध्यम से अनेक जीव सम्यक्त्व को प्राप्त कर सकते हैं तथा इसी के साथ अन्य धर्मी भी जैन धर्म के अनुयायी बनते हैं। जब एक गृहस्थ अपने गृह कार्यों के लिए पूरा दिन हिंसा करता है तो उसे वह कार्य अनुचित नहीं लगता पर जैसे ही मंदिर के सम्बन्ध में बात आती है तो हिंसा दिखती है, यह मात्र कुतर्क वादिता है । इन कार्यों में भावों को प्रधानता देकर विचार करना चाहिए। यहाँ यह प्रश्न भी हो सकता है कि गर्भ और जन्म तो सभी जीवों के होते है, फिर मात्र तीर्थङ्करों के ही ये दोनों उत्सव इन्द्रों द्वारा क्यों मनाये जाते हैं ? अन्य संसारी जीवों के क्यों नहीं ? समाधान यह है कि यद्यपि गर्भ में आना और जन्म लेना कोई नई बात नहीं है बल्कि ये तो दुःखदायी ही होते हैं, किन्तु जिस गर्भ के बाद पुन: किसी
SR No.006251
Book TitlePratishtha Vidhi Ka Maulik Vivechan Adhunik Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages752
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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