SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 289
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जिन पूजा विधि की त्रैकालिक आवश्यकता एवं... ...223 लाभ नहीं होने पर भी साधक को लाभ अवश्य होता है। औषधि सेवन से औषध या डॉक्टर को लाभ हो या न हो पर मरीज को लाभ अवश्य होता है वैसे ही जिनपूजा करने से जिनेश्वर देव को कोई लाभ हो या न हो परन्तु पूजा करने वाले को लाभ अवश्य होता है। __जिनपूजा के द्वारा विशेष रूप से भाव विशुद्धि होती है। सम्यग्दर्शन आदि गणों की प्राप्ति होती है। इसी भाव विशद्धि के कारण चारित्र मोहनीय का क्षयोपशम होने से चारित्र की प्राप्ति भी हो सकती है, जिससे हिंसाजनित कार्यों से सर्वथा निवृत्ति मिल जाती है। जितने समय तक जिनपूजा की जाती है उतने समय तक हिंसा का आरम्भ-समारम्भ नहीं होता तथा शुभ भाव उत्पन्न होते हैं। जो भव्य प्राणी उत्कृष्ट भाव से जिनेश्वर परमात्मा का पूजन, दर्शन और स्तुति करते हैं वे तीनों लोकों में स्वयं ही दर्शन, पूजन और स्तुति के योग्य बन जाते हैं, अर्थात परमात्मा बन जाते हैं। परमात्मा की पूजा-भक्ति करने से अनुचित कार्यों के त्याग की भावना जागृत होती है। और निजी कर्तव्यों का बोध होता है। इससे हृदय परिवर्तन में सहायता मिलती है। किसी अज्ञात आचार्य ने त्रिकाल पूजा के लाभ का सुन्दर चित्रण करते हुए कहा है जिनस्य पूजनं हन्ति, प्रातः पाप निशा भवम् । आजन्म विहित मध्ये, सप्त जन्मकृतं निशि ।। __ अर्थात जिनेश्वर परमात्मा का प्रात:काल में किया हुआ पूजन रात के पापों का नाश करता है। दोपहर का पूजन इस भव के पापों का नाश करता है तथा सन्ध्या के समय किया गया पूजन सात जन्मों के पापों का नाश करता है। मानव के चरित्र निर्माण एवं आत्मोत्थान के लिए एक ऐसे आदर्श की आवश्यकता है जिससे वह स्वयं पतित अवस्था से उत्थान पाते-पाते, ऊँचे उठते-उठते क्रमश: उच्च, उच्चतर एवं उच्चतम अवस्था को प्राप्त कर सकें। जिनेश्वर परमात्मा ऐसे ही उच्च आदर्श हैं जिन्होंने प्रत्येक सामान्य जीव की भाँति निगोद से ही अपनी विकास यात्रा प्रारंभ की एवं अथक पुरुषार्थ के द्वारा शुद्ध आत्म अवस्था को प्राप्त किया। उन्हें आदर्श के रूप में मानते हुए उनकी पूजा आराधना करने पर मन में यह विश्वास होता है कि हम भी उस अवस्था को प्राप्त कर सकते हैं। अत: जिनपूजा के माध्यम से यह आत्मा विशुद्ध
SR No.006250
Book TitlePuja Vidhi Ke Rahasyo Ki Mulyavatta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy