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________________ 96... पूजा विधि के रहस्यों की मूल्यवत्ता - मनोविज्ञान एवं अध्यात्म... प्रदर्शित की, देश-विदेश में विचरण कर भव्यजनों को प्रतिबोध दिया तथा साधना करते हुए ही केवलज्ञान भी प्राप्त किया उसी बल को प्राप्त करने हेतु परमात्मा के घुटनों की पूजा करता हूँ। इन्हीं भावों के साथ दाएँ और बाएँ घुटने की पूजा करें। कलाई - वरसीदान । बहुमान ।। लोकान्तिक वचने करी, वरस्यां कर कांडे प्रभु पूजना, पूजो भवि अर्थ- लोकान्तिक देवों द्वारा विनंती करने पर तीर्थंकर परमात्मा ने हर रोज एक करोड़ आठ लाख स्वर्ण मुद्राओं का दान देते हुए वर्ष भर में तीन सौ अठ्यासी करोड़ अस्सी लाख स्वर्ण मोहरों के दान की वर्षा की। अतः अत्यंत बहुमान पूर्वक दानवृत्ति पाने के उद्देश्य से भगवान की कलाई की पूजा करता हूँ। इन्हीं भावों से कर युगल की पूजा करें। स्कंध मान गयुं दोय अंश थी, देखी वीर्य अनंत । भुजाबले भवजल तर्या, पूजो खंध महंत ।। अर्थ— तीर्थंकर परमात्मा ने अनंतवीर्य के द्वारा मान कषाय (अहंकार) को पूर्ण रूप से समाप्त कर इस भवसागर को भी अपने भुजाबल द्वारा पार किया है। उसी सामर्थ्य को पाने हेतु मैं आपके कंधों की पूजा करता हूँ । शिखा सिद्धशिला गुण ऊजली, लोकान्ते भगवन्त । वसिया तिण कारण भवि, शिरशिखा पूजन्त ।। अर्थ- समस्त कर्म बंधनों से मुक्त होकर अरिहंत परमात्मा ने चौदह राजलोक के अग्रभाग में स्थित सिद्धशिला पर निवास कर लिया है। शिखा स्थान की दिशा से ही उनकी आत्मा का ऊर्ध्वारोहण होता है। इस प्रयोजन से एवं मोक्ष प्राप्ति की भावना से भगवान के शिखा की पूजा करता हूँ। इन्हीं भावों के साथ शिखा स्थल पर तिलक करें। ललाट तीर्थंकर पद पुण्यथी, त्रिभुवन जन सेवंत । त्रिभुवन तिलक समां प्रभु, भाल तिलक जयवंत ।।
SR No.006250
Book TitlePuja Vidhi Ke Rahasyo Ki Mulyavatta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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