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________________ अष्ट प्रकारी पूजा का बहुपक्षीय अनुशीलन ... 97 अर्थ- तीर्थंकर पद के पुण्य से तीनों लोक में परमात्मा की पूजा-सेवा होती है और इसलिए आप तीनों लोक के तिलक के समान हैं। अतः ऐसे भाल पर तिलक करने से सही अर्थ में आत्म विजय प्राप्त होती है। इन शुभ भावों से युत होकर परमात्मा के ललाट पर तिलक करता हूँ । कंठ विवर वर्तुल । अमूल ।। सोलह प्रहर प्रभु देशना, कंठे मधुर ध्वनि सुरनर सुणे, तिणे गले तिलक अर्थ - निर्वाण प्राप्ति से पूर्व तीर्थंकर परमात्मा ने निरंतर सोलह प्रहर तक अपने कंठ विवर से देशना देकर भव्यजीवों का कल्याण किया। मालकोश रागबद्ध परमात्मा की मधुर ध्वनि को मनुष्य, देवता, तिर्यंच आदि समस्त जीव एकाग्रता पूर्वक सुनते हैं। ऐसे पावन कंठ की तिलक द्वारा मैं पूजा करता हूँ। हृदय हृदय कमल उपशम बले, बाल्या राग ने रोष । हिम दहे वनखंडने, हृदय तिलक संतोष ।। अर्थ- जिस प्रकार बरफ गिरने से सम्पूर्ण वन जल जाता है उसी प्रकार आपके हृदय में रही शान्ति एवं शीतलता द्वारा राग और द्वेष भी जल जाते हैं तथा परम संतोष गुण प्राप्त होता है । उसी समता एवं संतोष की प्राप्ति हेतु परमात्मा के हृदय की पूजा करता हूँ । नाभि रत्नत्रयी गुण ऊजली, सकल सुगुण विश्राम । नाभि कमलनी पूजना, करता अविचल धाम ।। अर्थ- समस्त शक्तियों का मूल केन्द्र नाभि है । रत्नत्रयी रूप सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र की साधना से समस्त सद्गुणों का वास परमात्मा की नाभि में होता है। ऐसे नाभि कमल की पूजा करने से अविचल मुक्तिधाम की प्राप्ति होती है। इन्हीं उत्तम गुण प्राप्ति के भावों से युक्त होकर नाभिकमल की पूजा करता हूँ। कलश उपदेशक नवतत्त्व ना, तेणे नव अंग जिनंद । पूजो बहुविध भावसुं कहे शुभवीर मुणिंद ।।
SR No.006250
Book TitlePuja Vidhi Ke Rahasyo Ki Mulyavatta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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