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________________ 82... जैन मुनि की आहार संहिता का समीक्षात्मक अध्ययन ध्येय ही नहीं होता है अपितु ऐसे लोग साधु को जो आहार दिया जाये वही हमारा है- ऐसे भाव वाले होते हैं। वे साधु के उद्देश्य से अधिक आहार नहीं बनाते इसीलिए दान के प्रयोजन से तैयार किया गया भोजन साधु के लिए दूषित नहीं होता है। अत: निर्दोष आहार की प्राप्ति संभव है।51 यदि यह माना जाए कि निर्दोष भिक्षा प्राप्त करना मुश्किल है तो यह कहना सत्य है। क्योंकि साधु के लिए निर्दोष आहार ही नहीं, अपित उसकी समस्त आचार चर्या दुष्कर है- यह लोक विश्रुत भी है। यदि यह कहा जाए कि 'निर्दोष भिक्षा दुष्कर है' तो फिर साधु को इसके लिए इतना प्रयत्न क्यों करना चाहिए? इसका समाधान देते हुए कहा गया है कि साध्वाचार का फल मोक्ष है। यह मोक्ष कठिन प्रयत्न किए बिना नहीं मिलता है इसलिए निर्दोष भिक्षा प्राप्त करने का प्रयत्न करना आवश्यक है। आधुनिक युग में भिक्षाचर्या के औचित्य एवं अनौचित्य का प्रश्न जैन मुनि अपने जीवन का निर्वाह भिक्षाचर्या के द्वारा करते हैं। जैन आगमों में मुनि के लिए अपनी आजीविका के निर्वाह हेतु व्यापार आदि करने का निषेध किया गया है और स्थान-स्थान पर उसे भिक्षाचर्या के द्वारा अपनी आजीविका चलाने के लिए कहा गया है। किन्तु वर्तमान युग में भिक्षाचर्या को एक अपराध माना जाने लगा है। स्वतंत्रता के पश्चात भारत सरकार ने भिक्षावृत्ति उन्मूलन नामक एक कानून भी बनाया था, यद्यपि वह कानून पूरी तरह से लागू नहीं हो पाया, फिर भी यह तो एक सुनिश्चित सत्य है कि आधुनिक युग में भिक्षावृत्ति के माध्यम से आजीविका अर्जन को अच्छा नहीं माना जाता है। ____सामान्यतया यह कहा जाता है कि जो शारीरिक दृष्टि से किसी भी प्रकार का कार्य करने में समर्थ हैं उन्हें अपनी आजीविका का अर्जन श्रम पूर्वक ही करना चाहिए, क्योंकि यदि समर्थ व्यक्ति भी अपनी आजीविका चलाने के लिए भिक्षावृत्ति का सहारा लेगा तो देश में अकर्मण्यता बढ़ेगी और उसके परिणाम स्वरूप देश का विकास भी अवरुद्ध होगा। अत: शासन समर्थ व्यक्तियों के लिए भिक्षावृत्ति को उचित नहीं माना जा सकता। जो किसी भी प्रकार के कार्य करने में पूर्णत: असमर्थ हैं, उन लोगों के लिए ऐसे अपंग आश्रम आदि बनाने की व्यवस्था की गई है, जहाँ वे लोग अपनी आजीविका पाकर जीवन जी सकते हैं।
SR No.006243
Book TitleJain Muni Ki Aahar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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