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________________ वर्तमान युग में भिक्षाचर्या का औचित्य एवं उसके नियमोपनियम ... 83 जहाँ तक जैन मुनियों और साधुओं का प्रश्न है उनमें सामान्यतया विकलांग व्यक्ति को दीक्षा देने का निषेध किया गया है। जैन साधु-साध्वी शारीरिक दृष्टि से आजीविका अर्जन करने के योग्य ही होते हैं, अतः उनके द्वारा भिक्षावृत्ति से जीवन यापन करने का समर्थन नहीं किया जा सकता है। यहाँ यह समस्या उत्पन्न होती है कि जैन मुनियों को भिक्षावृत्ति के द्वारा आजीविका प्राप्त करना चाहिए अथवा नहीं? यदि वे भिक्षावृत्ति का परित्याग करते हैं और अपनी आजीविका अर्जन के लिए अन्य किन्हीं साधनों का उपयोग करते हैं तो वे नाज्ञा का भंग करते हैं और इस प्रकार उनकी धर्म और आध्यात्मिक साधना भी बाधित होती है किन्तु दूसरी ओर यदि वे भिक्षावृत्ति का त्याग करते हैं तो उनकी आजीविका की पूर्ति कैसे हो, यह प्रश्न उपस्थित होता है ? पुनः यदि भिक्षावृत्ति का समर्थन किया जाता है तो एक वर्ग के लिए इसकी छूट देने पर दूसरा वर्ग भी उसके लिए छूट की अपेक्षा करेगा और इस प्रकार भिक्षावृत्ति निरोध संभव नहीं होगा। इस समस्या का समाधान कैसे हो, यह आज का एक विचारणीय प्रश्न है ? सर्वप्रथम इस सम्बन्ध में भिक्षावृत्ति का अर्थ स्पष्ट करना होगा। सड़क पर अपनी दीनता को बताकर भिक्षावृत्ति प्राप्त करना एक अलग बात है और गृहस्थों के घर से उनके लिए तैयार भोजन में से एक या आधी रोटी लाना दूसरी बात है। जैन साधु के लिए दीनता पूर्वक भिक्षावृत्ति का पूर्णतया निषेध है। न तो वह अपनी दीनता को प्रकाशित करता है और न दाता को किसी प्रकार का भय या प्रलोभन दिखाता है। एक सत्य यह भी है कि जैन मुनि अपनी भिक्षावृत्ति के माध्यम से मात्र पका हुआ भोजन ही लेता है । वह किसी प्रकार के धन आदि की याचना नहीं करता है और न दाता को देने के लिए विवश करता है । अत: जैन मुनि की भिक्षावृत्ति अन्य परम्पराओं की भिक्षावृत्ति से बिल्कुल भिन्न है । वह सड़क पर खड़े होकर भी भिक्षा की याचना नहीं करता है, मात्र लोगों के घरों पर जाकर यदि उनके द्वार खुले हों और भोजन निष्पन्न हो तो ही अपनी याचना करता है। वस्तुतः जैन मुनि भिक्षा की याचना नहीं करता बल्कि गृहस्थ वर्ग उन्हें भिक्षा देने के लिए भावोल्लास पूर्वक खड़े रहते हैं। इसलिए सामान्यतया जिसे भिक्षा समझा जाता है जैन मुनि की भिक्षाचर्या उससे भिन्न है।
SR No.006243
Book TitleJain Muni Ki Aahar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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