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________________ 64... जैन मुनि की आहार संहिता का समीक्षात्मक अध्ययन • गृहस्थ दाता दालचीनी, उबले केर, ओदन पिस्ट (आटा), तिल पिस्ट आदि बहराएं तो उसे विवेक पूर्वक ग्रहण करें। कतिपय खाद्य-पेय वस्तुएँ इस तरह की होती है जिनका छेदन-भेदन, पिष्टन-दलन आदि करने के पश्चात भी वे अचित्त एवं शस्त्र परिणत नहीं हो पाती हैं अत: इस विषय में पूर्ण जानकारी प्राप्त करने के बाद उसे ग्रहण करें।26 भिक्षाचर्या सम्बन्धी सामान्य नियम- दशवैकालिक सूत्र के अनुसार भिक्षाग्राही मुनि गृहस्थ के सामने अपनी दीनता - हीनता प्रदर्शित करके या गिड़गिड़ाकर या लाचारी बताकर भिक्षा ग्रहण न करें। क्योंकि दीनता प्रकट करने से आत्मा का अध:पतन और जिनशासन की लघुता होती है। भावों में दीनता आने से शुद्ध आहार की गवेषणा नहीं हो सकती और किसी तरह आहार के पात्र भरने की वृत्ति जग जाती है। दीनता त्याग मूलक श्रमण धर्म को भी खण्डित कर देती है। • भिक्षाकाल में कदाचित शुद्ध गवेषणा करने के उपरान्त भी भोजन-पानी न मिले तो मन में किसी प्रकार का खेद न करें। खिन्न होने से आर्त ध्यान होता है एवं शान्ति गुण का ह्रास हो जाता है। • भिक्षाग्राही मुनि सरस-स्वादिष्ट आहार में आसक्त न बने। इससे निर्लोभता का गुण समाप्त होता है, फलत: एषणा शुद्धि भी नहीं रह जाती है। __• भिक्षार्थी मुनि आहार परिमाण का ज्ञाता होना चाहिए, अन्यथा प्रमाण से अधिक आहार ले आये तो उसका परिष्ठापन करने से असंयम होता है।27 • आचारचूला के निर्देशानुसार जैन मुनि अन्य तीर्थिक भिक्षुओं एवं गृहस्थों के साथ भिक्षाचर्या के लिए गमन न करें। एकाकी भी गमन न करें। संघाटक (दो साधुओं का समूह) के रूप में गमन करें।28। अन्य तीर्थिकों एवं गृहस्थों के साथ भिक्षा गमन का निषेध संयम आराधना की दृष्टि से किया गया है। जैन श्रमण के लिए एषणीय- अनेषणीय का विवेक रखना जरूरी है जबकि अन्य तीर्थिकों के लिए ऐसा कोई प्रतिबन्ध नहीं होता। इस तरह दोनों के आचार-गोचर में पर्याप्त भिन्नता होने से उन अन्य संन्यासियों के मन में कई प्रकार के संकल्प-विकल्प उठ सकते हैं जैसे कि जैन साधु गवेषणा का ढोंग करते हैं, हमें नीचा दिखाने के लिए दिखावा करते हैं। गृहस्थ के मन में भी अनेक तरह के विचार पनप सकते हैं।
SR No.006243
Book TitleJain Muni Ki Aahar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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