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________________ वर्तमान युग में भिक्षाचर्या का औचित्य एवं उसके नियमोपनियम ...63 चर्चा करें। ऐसा करने पर गुरु अदत्त का दोष लगता है, क्योंकि भिक्षार्थी मुनि ने गुरु से आहार आदि ग्रहण करने की अनुमति प्राप्त की है धर्मकथा आदि की नहीं। भिक्षाचर्या काल में गृहस्थ के घर बैठना ब्रह्मचर्य एवं अनासक्ति की दृष्टि से भी उचित नहीं है। बैठना तो दूर रहा, खड़े रहकर भी धर्म कथा करना उपर्युक्त कारणों से अनुचित है। लम्बी अवधि तक कथा करने से संयम का उपघात और एषणा समिति की विराधना होती है। इससे अति परिचय भी बढ़ता है जो संयम जीवन के लिए हानिकारक है। • भिक्षाटन करने वाला साधु गृहस्थ के गृहांगन में अर्गला (आगला), परिघ (कपाट को ढंकने वाले फलक), द्वार एवं किंवाड का सहारा लेकर खड़ा न रहें। अर्गला आदि को पकड़ कर या उसका सहारा लेकर खड़े रहने में यह दोष है कि कदाचित वे मजबूती से बंधे हुए न हों तो अचानक टूटकर या खुलकर मुनि पर गिर सकते हैं या मुनि नीचे गिर सकता है, इससे संयम विराधना और आत्म विराधना दोनों दोष संभव है। • किसी गृहस्थ के द्वार पर बौद्ध श्रमण, कृपण, ब्राह्मण या वनीपक आदि भिक्षाचर आहार के लिए खड़े हों तो जैन साधु उन्हें हटाकर घर में प्रवेश न करें और न ही उस समय गृह स्वामी एवं श्रमण आदि की आँखों के सामने खड़ा रहे, किन्तु एक ओर जाकर खड़ा रहे। गृहस्थ के द्वार पर भिक्षाचर खड़े हों तो उन्हें हटाकर या लांघकर जाने में मुख्यतया तीन दोष हैं- 1. गृहस्थ को या याचक को उस साधु के प्रति अप्रीति या द्वेष हो सकता है, 2. कदाचित गृहस्थ भक्त साधु को देखकर उन याचकों को दान न दे तो इससे साधु को अंतराय का दोष लगता है, 3. सामान्य जनों में धर्म संघ की निन्दा भी हो सकती है। - • भिक्षार्थ गमन करते समय जिस मार्ग पर कहीं चुग्गा-पानी या चारादाना पाने के लिए पशु या पक्षी एकत्रित हों या चुग्गा-पानी करने में प्रवृत्त हों तो भिक्षाचारी साधु उस मार्ग से न जाएं क्योंकि उस पथ पर जाने से साधु या साध्वी को देखकर वे भयाक्रान्त हो सकते हैं। इसके परिणामस्वरूप भोजन करना बंद कर सकते हैं, उड़ सकते हैं या भाग दौड़ कर सकते हैं। इससे उनके खाने में अन्तराय, वायकाय की अयतना आदि दोषों की संभावना रहती है। अतएव उक्त स्थितियों में अन्य मार्ग से गमन करना चाहिए।
SR No.006243
Book TitleJain Muni Ki Aahar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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