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________________ 296... जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन जाना क्षेत्र स्थापना है। चातुर्मासिक काल में जो कल्पनीय हो, वही लेना काल स्थापना है। क्रोध आदि कषाय भावों का शमन करना और भाषा समिति आदि के प्रति विशेष जागरूक रहना भाव स्थापना है । 10 ज्ञातव्य है कि परम्परा से जिसको पहले दीक्षा दी जा चुकी है, श्रद्धा से ओत-प्रोत एवं उत्कृष्ट वैरागी, इन तीन को छोड़कर शेष व्यक्तियों को चातुर्मास में प्रव्रजित करने का निषेध है। इसके पीछे यह कारण खोजा गया है कि अतिरिक्त जीवों को दीक्षित करने पर वे धर्मशून्य हो सकते हैं अर्थात वर्षा आदि में आने-जाने में शंकाशील हो सकते हैं तथा मण्डली में भोजन करने पर और मात्रक में लघु नीति-बड़ी नीति आदि करने पर उनके मन में जिनवचन के प्रति तिरस्कार का भाव पैदा हो सकता है अतः चातुर्मास में दीक्षाकर्म का निषेध है। 11 वर्षावास में विहार करने के कारण सामान्यतया वर्षावासी साधु-साध्वियों को विहार करना नहीं कल्पता है किन्तु स्थानांगसूत्र में इसके पाँच अपवाद बतलाये गये हैं- 12 1. ज्ञानार्थ - विशेष ज्ञान की प्राप्ति के लिए। 2. दर्शनार्थ-दर्शन-प्रभावक शास्त्र का अर्थ पाने के लिए। 3. चारित्रार्थ - चारित्र की रक्षा के लिए। 4. आचार्य या उपाध्याय की मृत्यु होने पर अथवा उनका कोई महत्त्वपूर्ण कार्य करने के लिए। 5. वर्षा क्षेत्र से बाहर रहने वाले आचार्य या उपाध्याय की वैयावृत्य करने के लिए। उक्त पाँच कारणों से वर्षावास - पर्युषण में विहार किया जा सकता है। स्थानांगसूत्र के निर्देशानुसार निम्न पाँच कारणों से प्रथम प्रावृत्त (आषाढ़ ) में विहार किया जा सकता है - 13 1. शरीर, उपकरण आदि के अपहरण का भय होने पर । 2. दुर्भिक्ष होने पर। 3. ग्राम से निकाल दिये जाने पर । 4. बाढ़ आ जाने पर । 5. अनार्यों द्वारा उपद्रव किए जाने पर ।
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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