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________________ 252...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन प्रतिलेखन, प्रतिक्रमण आदि क्रियाएं समय पर की जानी चाहिए। इसी तरह विहार भी समय-मर्यादा को ध्यान में रखकर करना चाहिए। हानि-एक स्थान पर अधिक रहने से चारित्र मलिन होता है। उस स्थान के प्रति राग भाव बढ़ जाता है। वहाँ रहने वाले गृहस्थों और अन्य जनों में भी राग पैदा हो जाता है। इससे उद्गमादि आहार के दोषों की भी सम्भावना रहती है। 2. उपस्थापन क्रिया-जिस स्थान पर शेषकाल में मासकाल पूरा किया हो अथवा चातुर्मास काल बिताया हो उससे दुगुना या तिगुना समय अन्य स्थान पर बिताये बिना पन: वहाँ लौट आने पर पूर्वोक्त वसति उपस्थापना दोष से दूषित कही जाती है। 3. अभिक्रान्त-जो स्थान सर्वसामान्य लोगों के रहने हेतु बनाया गया हो और उस वसति में चरक आदि अथवा गृहस्थ रहे हुये हों वहाँ जाकर रहना, अभिक्रान्त नामक वसति दोष है। ___4. अनभिक्रान्त-जो स्थान सर्वसामान्य हो किन्तु उस स्थान का किसी ने उपयोग न किया हो, वहाँ जाकर रहना अनभिक्रान्त वसति दोष है। 5. वर्ण्य-जो स्थान गृहस्थ ने स्वयं के लिए बनाया हो और वहाँ कुछ समय रहने के पश्चात वह स्थान साधु को रहने के लिए दे दिया हो तथा स्वयं के लिए पुन: नए मकान का निर्माण करवा रहा हो उस स्थिति में साधु को दिया गया वह स्थान, वर्ण्य दोष से दूषित कहलाता है। ____6. महावय॑- श्रमण, ब्राह्मण आदि पाखंडियों के उद्देश्य से निर्मित की गई वसति में रहना महावय॑ दोष है क्योंकि वह स्पष्टत: औद्देशिक है। 7. सावद्य-पाँच प्रकार के श्रमणों के लिए निर्मित की गई वसति में रहना सावध नामक वसति दोष है। 8. महासावद्य-जैन मुनियों के लिए बनवाई गई वसति में रहना महासावध वसति दोष है। _-_9. अल्पक्रिया-जो वसति उपर्युक्त दोषों से तो रहित हो, किन्तु गृहस्थ ने स्वयं के लिए बनवाई हो एवं उत्तरगुण परिकर्म से रहित हो, वह वसति अल्पक्रियायुक्त अर्थात साधु के निमित्त संस्कारित कहलाती है। __ इन नौ वसतियों में से अल्पसावध वसति विशद्ध है। इस वसति में गृहस्वामी की आज्ञा लेकर रुक सकते हैं। इसके बाद अभिक्रान्त वसति किंचित
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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