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________________ वसति (आवास) सम्बन्धी विधि-नियम...251 जहाँ गाय, भैंस आदि तिर्यंच पशु एवं वेश्या, स्वेच्छाचारिणी आदि महिलाएं रहती हो तथा भवनवासिनी, व्यंतरवासिनी आदि विकारी वेशभूषा वाली देवियाँ अथवा गृहस्थजन वास करते हो, इस प्रकार के क्षेत्रों का भी सर्वथा परित्याग कर देना चाहिए।17 अप्रमत्त मुनि को आर्यिकाओं के स्थान पर भी धर्म कार्य के अतिरिक्त नहीं बैठना चाहिए। आर्यिकाओं के स्थान पर आने-जाने से साधु की दो प्रकार से निन्दा होती है-व्यवहाररूप और परमार्थरूप। लोकापवाद होना व्यवहार निन्दा है और व्रत खण्डित हो जाना परमार्थ निन्दा है।18 किन स्थितियों में शुद्ध वसति भी अशुद्ध? ____ जैनागमों में वसति सम्बन्धी ऐसे नियम भी वर्णित हैं जिनका यथोक्त अनुपालन न करने पर शुद्ध वसति भी अशुद्ध हो जाती है। वे नियम अधोलिखित हैं-19 1. कालातिक्रान्त-जिस स्थान पर चातुर्मास के चार महीने से अधिक और शेष काल में एक महीने से अधिक रहे हों वह वसति कालातिक्रान्त कही जाती है। सामान्यतया साधु का यह आचार है कि वह शीतकाल और ग्रीष्मकाल में किसी एक स्थान में एक माह तक रह सकता है। किसी ठोस कारण के बिना शीत तथा उष्ण काल में इससे अधिक एक स्थान पर रहना साधु का कल्प नहीं है। जैन मुनि को नवकल्प विहारी कहा गया है। नवकल्प विहारी साधु के आठ मास के आठ कल्प और चातुर्मास काल का एक कल्प होता है। साधु को वर्षाकाल में एक स्थान पर चार मास तक रहना कल्पता है, इससे अधिक नहीं, क्योंकि चातुर्मास के पश्चात वह वसति कालातिक्रान्त हो जाती है। इससे सूचित होता है कि चातुर्मास के पश्चात तुरन्त विहार कर देना चाहिए अन्यथा साधु दोष का अधिकारी बनता है। ___संघ व्यवस्था की दृष्टि से भी साधुओं को कल्पानुसार विचरण करना चाहिये ताकि अधिक लोगों को धर्म-श्रवण और धर्माचरण का लाभ मिल सके। जो साधु इस काल-मर्यादा का उल्लंघन करते हैं वे कालातिक्रान्त दोष के भागी होते हैं। शास्त्रकारों ने 'काले कालं समायरे' कहकर साधुओं के लिए सदैव काल मर्यादा के प्रति जागरूक रहने का निर्देश दिया है। स्वाध्याय, ध्यान,
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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