SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 315
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वसति (आवास) सम्बन्धी विधि-नियम...253 दोषकारी होने से कल्प्य है। शेष सात प्रकार की वसति अकल्पनीय और अग्राह्य है। कौनसी वसति किस कारण से दूषित? आचारांगसूत्र के टीकाकार शीलांकाचार्य के अभिमत से कालातिक्रान्त और उपस्थापना नामक वसति काल मर्यादा के उल्लंघन के कारण अकल्पनीय है। अभिक्रान्त-अनभिक्रान्त नामक वसति भिक्षाचारों के उद्देश्य से निर्मित होने के कारण जब तक अन्य को सुपर्द न की गई हो तब तक औद्देशिक होने से अकल्पनीय है। वर्ण्य नामक वसति पश्चात कर्म दोष वाली होने से अकल्पनीय है। महावयं-श्रमण आदि की गणना करके बनायी जाती है, अतएव औद्देशिक होने से अकल्पनीय है। सावद्य- पाँच प्रकार के श्रमणार्थ निर्मित वसति में षट्काय जीवों की विराधना होने से अकल्पनीय है। महासावद्य-खास तौर पर साधु के निमित्त बनवाई जाती है अतएव वह भी अकल्पनीय है। अल्पसावद्ययह वसति गृहस्थ स्वयं के लिए बनाता है, अत: सर्वथा निर्दोष और कल्पनीय है। हानि-सामान्यतया सार्वजनिक स्थान पर जहाँ लोगों का और अन्य मतावलम्बी साधुओं का बार-बार आवागमन होता हो, वहाँ जैन मुनि को अधिक समय तक नहीं रुकना चाहिए। ऐसे स्थानों पर अधिक समय तक रुके रहें तो अन्य मतावलम्बी साधुओं को स्थान के अभाव में असुविधा हो सकती है। लम्बे समय तक रहने के कारण वहाँ के व्यवस्थापकों के मन में साधु के प्रति अरुचि या उपेक्षा भाव पैदा हो सकता है। साथ ही वहाँ तरह-तरह के लोगों और साधुओं का जमघट लगा रहने से जैन आचार के परिपालना में कठिनाई हो सकती है। ऐसे स्थान प्राय: अशान्त और कोलाहलपूर्ण रहते हैं, वहाँ शान्त चित्त से स्वाध्याय-ध्यान आदि नहीं हो सकता है। इस दृष्टि से भी वादि स्थानों का निषेध किया गया है। दूसरे, अन्य मतावलम्बी साधुओं और गृहस्थों के साथ अधिक सम्पर्क बढ़ जाने से जैन मुनि का सम्यकत्व दूषित हो सकता है। जैन श्रमण और अन्य साधुओं के आचार-व्यवहार में बहुत अन्तर होने से दोनों को एक-दूसरे के प्रति असद्भाव और अविश्वास हो सकता है जिसके कारण संक्लेश की स्थिति भी निर्मित हो सकती है। लोगों में किसी के प्रति अधिक और किसी के प्रति कम भक्ति होने से परस्पर द्वेषभाव भी पनप सकता है। इन बातों
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy