SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 270
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 208...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन शरीर में ताजगी एवं स्फूर्ति रहती है, जिससे कार्य करने में आलस्य या कामचोरी नहीं आती। आज बिना देखे ठेले आदि का समोसा, कचौड़ी, पावभाजी आदि खाने से कई बार विषाक्त भोजन के कारण स्वास्थ्य एवं पैसे की जो हानि होती है, उसे रोका जा सकता है। चित्त की चंचलता एवं विकारों का दमन करने में तथा कार्य में रुचि एवं एकाग्रता बढ़ाने में भी यह सहायक हो सकता है। आज कई बार भूमि आदि खरीदते समय ध्यान न रखने से अवैध, माफिया, डॉन आदि की सत्ता होने पर जान-माल दोनों का खतरा रहता है। अत: आत्म रक्षा के लिए भी प्रतिलेखना बहुपयोगी है। ___ प्रतिलेखना विधि का महत्त्व यदि वैयक्तिक एवं मनोवैज्ञानिक संदर्भ में देखा जाए तो सर्वप्रथम प्रतिलेखना करने से प्रमाद दूर होता है। प्रतिलेखना के द्वारा दृष्टि सूक्ष्मग्राही बनती है। मन बाह्य वस्तुओं एवं अन्य विषयों से हटकर स्वयं में केन्द्रित होता है। इसके माध्यम से व्यक्ति कई बार आकस्मिक दुर्घटनाओं से भी बच जाता है, जैसे वस्त्र, पात्र या भूमि पर कोई जहरीला या हानिकारक जीव हो तो प्रतिलेखना द्वारा उसकी और स्वयं की यतना हो सकती है। इसी प्रकार प्रत्येक कार्य में उपयोग, विवेक एवं जागृति रखने से उसकी सफलता निश्चित रूप से मिलती है। प्रतिलेखना की उपयोगिता पर यदि प्रबन्धन के परिप्रेक्ष्य में विचार किया जाए तो यह शरीर प्रबन्धन, दृष्टि प्रबन्धन, भाव प्रबन्धन में बहुपयोगी हो सकती है। प्रतिलेखन क्रिया में विधिपूर्वक बार-बार उठने-बैठने से प्रमाद दूर होता है, शरीर में स्फूर्ति आती है तथा पूर्ण जागृति भी रहती है। इससे शरीर प्रबन्धन होता है। प्रतिलेखना के माध्यम से वस्त्र, पात्र, वसति आदि की शुद्धि, आत्मरक्षा एवं अन्य प्राणों की रक्षा की जा सकती है। प्रतिलेखना करने से भावों की निर्मलता एवं जीवों के प्रति करुणा वृत्ति पनपती है तथा कषाय आदि के भाव कम होते हैं। इससे भाव प्रबन्धन होता है। प्रतिलेखन एक आवश्यक क्रिया है। इसके प्रति सचेत रहने से नियमों के प्रति दृढ़ता, संयम के प्रति पूर्ण निष्ठा एवं जागृति का गुण परिपुष्ट होता है, जो प्रत्येक कार्य में जरूरी है। समस्त क्रियाएँ समयानुसार करने से समय का भी प्रबन्धन होता है।
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy