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________________ प्रतिलेखना एवं प्रमार्जना सम्बन्धी विधि-नियम...207 • प्रतिलेखक मुनि उपवासी हों तो क्रमश: पात्र, मात्रक, उपधि एवं चोलपट्ट की प्रतिलेखना करें। प्रचलित परम्परा के अनुसार सायंकालीन प्रतिलेखना यन्त्र पूर्ववत समझना चाहिए। विशेष इतना है कि इस समय गुरु, ग्लान, तपस्वी, नव दीक्षित आदि के समस्त प्रकार की उपधि का भी प्रतिलेखन करें तथा स्वयं की भी समस्त उपधि का क्रमानुसार प्रतिलेखन करें। उपसंहार जैन आचार और चारित्र धर्म की मुख्य नींव प्रतिलेखना है। मुनि जीवन की प्रत्येक क्रियाएँ प्रतिलेखना से सम्बद्ध हैं। चारित्र और प्रतिलेखना एक-दूसरे के पूरक तत्त्व हैं। इन दोनों में अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। चारित्र के अभाव में प्रतिलेखना और प्रतिलेखना के अभाव में चारित्र का अस्तित्व टिक नहीं सकता। जैसे चलते हुए देखना, पात्र आदि उठाते-रखते हुए देखना, मल-मूत्र आदि का परिष्ठापन करते हुए देखना इत्यादि। प्रतिलेखना का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। जैन श्रमण के लिए केवल वस्त्र, पात्र, रजोहरण आदि भण्डोपकरणों की ही नहीं, अपने आश्रित जो भी मकान, पट्टे, चौकी, पुस्तकें, शरीर आदि हों, उनका भी प्रतिलेखन करना आवश्यक है। सामान्यतया प्रतिलेखना चार प्रकार की कही गई है-1. वस्त्र, पात्र, पुस्तक, शरीर, पट्टा, चौकी आदि को अच्छी तरह से देखना द्रव्य प्रतिलेखना है। 2. स्थण्डिल भूमि, उपाश्रय भूमि, मल-मूत्र विसर्जन भूमि, विहार भूमि आदि का सम्यक निरीक्षण करना क्षेत्र प्रतिलेखना है। 3. स्वाध्यायकाल, भिक्षाचर्याकाल, प्रतिलेखनकाल, निद्राकाल, ध्यानकाल आदि का भलीभाँति स्मरण करके प्रत्येक क्रिया को यथासमय करना काल प्रतिलेखना है और 4. स्वयं के मन में उठने वाले शुभाशुभ भावों का सम्प्रेक्षण करना, स्वयं को देखना भाव प्रतिलेखना है। प्रतिलेखन जैसी शास्त्रीय क्रिया का चिन्तन यदि वर्तमान जगत की समस्याओं के सन्दर्भ में किया जाए तो इससे किसी भी वस्तु को खरीदते समय ठगे जाने की संभावना कम हो जाती है। अपनी परिगृहीत वस्तुओं की प्रतिलेखना करते रहने से जीवादि पड़ने के कारण वस्त्र-पात्र आदि का नुकसान होता हो तो उससे बचा जा सकता है। उसके द्वारा शारीरिक व्यायाम होने से
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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