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________________ मुनियों के पारस्परिक आदान-प्रदान (साम्भोगिक) सम्बन्धित... ...115 आधाकर्मादि जनित उसी दोष का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। इस सन्दर्भ में यह व्यवस्था भी है कि अशुद्धग्राही सांभोगिक को शिक्षा दी जाती है, यदि वह अपनी भूल स्वीकार कर पुन: उस दोष को न करने का संकल्प कर लेता है तो उसे तन्निष्पन्न प्रायश्चित्त देकर सांभोगिक के रूप में मान्य कर लिया जाता है। एक बार, दो बार, तीन बार तक अशुद्ध ग्रहण कर निवृत्त हो जाए अर्थात प्रायश्चित्त पूर्वक भूलों को स्वीकार कर लिया जाए तो उसे अपने साथ रखा जा सकता है, किन्तु चौथी बार दोष लगाकर प्रायश्चित्त द्वारा शुद्ध भी हो जाए, तो भी उसे क्षम्य नहीं माना जाता, फिर उसे विसांभोगिक घोषित कर दिया जाता है। ___ यदि कोई सांभोगिक साधु पहली बार में स्वयं के दोषों को स्वीकार कर प्रायश्चित्त नहीं करता है, तो वह उसी समय विसंभोगी बन जाता है। अन्यथा प्रायश्चित्त कर लेने पर तीन बार तक शुद्ध हो सकता है। व्यवहारटीका के अनुसार जो निष्कारण अन्य सांभोगिक के साथ शुद्ध या अशुद्ध उपधि ग्रहण करता है वह भी अनुशासित करने पर दोष से निवृत्त हो जाता है तो सांभोगिक है, अन्यथा प्रथम बार में ही उसे विसांभोगिक कर दिया जाता है अर्थात फिर उसके साथ उपधि आदि के लेन-देन का व्यवहार समाप्त कर दिया जाता है। उद्गम की तरह उत्पादना सम्बन्धी सोलह दोषों तथा एषणा सम्बन्धी दस दोषों से रहित शुद्ध उपधि आदि को संभोगी के द्वारा प्राप्त किया जाना या परस्पर में लेने-देने का व्यवहार करना उत्पादनाशुद्ध एवं एषणाशुद्ध उपधि संभोग है। वस्त्र आदि उपधि को उचित परिमाण में व्यवस्थित कर साधु के योग्य बना देना, जैसे गणधर सांभोगिक साध्वियों के लिए उपधि का विधिपूर्वक परिकर्म कर साध्वी प्रायोग्य बनाते हैं और साध्वियों को देते हैं, यह परिकर्मणा संभोग है। इसमें भी चार विकल्प हैं-1. कारण उपस्थित होने पर विधिपूर्वक की गई 2. कारण उपस्थित होने पर अविधि पूर्वक की गई 3. निष्कारण विधिपूर्वक की गई और 4. निष्कारण अविधि पूर्वक की गई। उक्त विकल्पों में पहला शुद्ध है, शेष भंग दूषित है। इन तीन अशुद्ध विकल्पों का सेवन करने वाला साधु प्रायश्चित्त लेकर तीसरी बार तक शुद्ध हो सकता है, इससे आगे नहीं।
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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