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________________ 114...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन कल्पी कहलाता है। 2. शैक्ष स्थापनाकल्प-अठारह प्रकार के पुरुष, बीस प्रकार की स्त्रियाँ तथा दस प्रकार के नपुंसक-इन अड़तालीस प्रकार के निषिद्ध व्यक्तियों को निष्कारण दीक्षित नहीं करने वाला शैक्ष स्थापनाकल्पी कहलाता है। उत्तरगुणकल्प-उद्गम आदि दोषों से रहित भिक्षाग्रहण करने वाला तथा समिति, गुप्ति, शीलांग और क्षमा आदि श्रमणधर्म-इन उत्तरगुणों का समान रूप से पालन करने वाला सदृशकल्पी सांभोगिक कहा जाता है और पालन नहीं करने वाला विसदृशता के कारण विसदृशकल्पी कहलाता है। ___ उत्सर्गत: सदृशकल्पी मुनि ही सांभोगिक कहलाते हैं इसलिए उनके साथ आहार आदि का आदान-प्रदान रूप व्यवहार किया जा सकता है। जिसका सभी मंडलियों से सम्बन्ध विच्छिन्न कर दिया जाता है, वह विसांभोगिक कहलाता है। संभोग के प्रकार व्यवहारभाष्य में संभोग के मुख्य रूप से छह प्रकार निर्दिष्ट हैं-1. ओघ अर्थात उपधि आदि 2. अभिग्रह 3. दान ग्रहण 4. अनुपालना 5. उपपात और 6. संवास। साध्वियाँ इनमें से केवल अनुपालना संभोग के द्वारा साधुओं की सांभोगिक होती हैं। संभोग के मुख्य भेदों में पहला ओघ संभोग है वह बारह प्रकार का बतलाया गया है - 1. उपधि 2. श्रुत 3. भक्तपान 4. अंजलिप्रग्रह 5. दान और 6. निकाचना 7. अभ्युत्थान 8. कृतिकर्मकरण 9. वैयावृत्त्यकरण 10. समवसरण 11. संनिषद्या और 12. कथाप्रबन्ध। 1. उपधि संभोग- सांभोगिक साधुओं के साथ मर्यादा के अनुसार उपधि का ग्रहण करना उपधि संभोग है। यह संभोग व्यवहारतः छह प्रकार से होता है1. उद्गम शुद्ध 2. उत्पादन शुद्ध 3. एषणा शुद्ध 4. परिकर्मणा शुद्ध 5. परिहरणा और 6. संयोग। ___ सांभोगिक द्वारा आधाकर्म आदि सोलह उद्गम दोषों से रहित वस्त्र, पात्र आदि उपधि को प्राप्त करना, उद्गमशुद्ध उपधि संभोग है। ज्ञातव्य है कि सांभोगिक साधु जिस दोष से अशुद्ध उपधि का संग्रहण करता है उसे
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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