SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 166
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 104...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन ___3. द्रव्य अवग्रह- द्रव्य अवग्रह तीन प्रकार का कहा गया है - 1. सचित्त 2. अचित्त और 3. मिश्र। शिष्यादि ग्रहण करना सचित्त अवग्रह है, रजोहरण आदि ग्रहण करना अचित्त अवग्रह है और रजोहरण सहित शिष्य को ग्रहण करना मिश्र द्रव्य अवग्रह है। 4. क्षेत्र अवग्रह- क्षेत्र अवग्रह तीन प्रकार का होता है - 1. सचित्त 2. अचित्त और 3. मिश्र अथवा 1. ग्राम 2. नगर और 3. अरण्य। 5. काल अवग्रह- कालावग्रह दो प्रकार का निर्दिष्ट है - ऋतुबद्ध और वर्षाकाल। 6. भाव अवग्रह- यह अवग्रह दो प्रकार का होता है- मति अवग्रह और ग्रहणावग्रह। मति अवग्रह विषयक ज्ञान कुल 10 प्रकार का होता है। जब अपरिग्रही साधु के द्वारा आहार, वसति, वस्त्र, पात्र आदि ग्रहण किये जाते हैं तब भाव ग्रहणावग्रह होता है। भाव ग्रहणावग्रह भी निम्न पाँच प्रकार का कहा गया है 1. देवेन्द्र अवग्रह- इस तिर्यक लोक के मध्य भाग में मेरु पर्वत है। मेरु के ऊपरवर्ती मध्य भाग में ऊपर से नीचे प्रतररूप और एक प्रदेश वाली एक श्रेणी है। यह श्रेणी लोक को उत्तर और दक्षिण दो भागों में विभक्त करती है। दक्षिण भाग का अधिपति शक्रेन्द्र और उत्तर भाग का अधिपति ईशानेन्द्र माना जाता है। अतएव दक्षिण भरत क्षेत्र में विचरण करने वाले साधु-साध्वी शक्रेन्द्र की अनुज्ञा लेते हैं। जंगल या अन्य स्थानों में जहाँ कोई अवग्रह दाता न हो वहाँ शक्रेन्द्र की आज्ञा ली जाती है। पद यात्रा के समय किसी वृक्ष के नीचे विश्राम करना हो, मल-मूत्रादि की शंका दूर करने के लिए निर्जन स्थान में बैठना हो, भूमि पर से तृण-काष्ठादि ग्रहण करना हो तब शक्रेन्द्र की अनुज्ञा ली जाती है। उस समय 'अणुजाणह जस्स ओग्गह'- यह जिसका स्थान है वह हमें अनुज्ञा दें, ऐसा बोलते हुए अनुमति ग्रहण करते हैं। उसके पश्चात वस्तु या स्थानादि का उपयोग करते हैं। इसी तरह जहाँ कोई अनुमति देने वाला नहीं हो वहाँ देवेन्द्र की अनुज्ञा लेकर स्थान-तृणादि ग्रहण करना, देवेन्द्र अवग्रह है। ____ 2. राजा अवग्रह- जिस क्षेत्र का जो राजा हो उसके आधिपत्य वाले क्षेत्र में विचरण करने वाले मुनि के द्वारा जो भी कार्य व्यवहार किया जाये उसके लिए राजा की अनुमति लेना, राजा अवग्रह है।
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy