SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 165
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्याय-3 अवग्रह सम्बन्धी विधि-नियम जैन मुनि का आचार निर्धारण अत्यंत ही सूक्ष्म दृष्टि से किया गया है। उसकी प्रत्येक क्रिया आंतरिक एवं बाह्य शांति में हेतुभूत बनती है । ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए मुनि को ठहरने योग्य स्थान एवं अन्य उपयोगी वस्तु आदि की आवश्यकता पड़ती है। उन सभी का ग्रहण एवं उपयोग भी मुनि को मालिक आदि की आज्ञापूर्वक ही करने का निर्देश है जिससे उसका तीसरा महाव्रत खंडित न हो एवं तदस्थानीय गृहस्थों को भी मुनि से अप्रीति नहीं हो। इसी आज्ञा ग्रहण को जैन शास्त्रीय भाषा में अवग्रह कहा गया है। अवग्रह का अर्थ विचार 'अवग्रह' जैन धर्म का आचार प्रधान शब्द है। सामान्यतया अवग्रह का अर्थ ग्रहण करना होता है, परन्तु जैन अवधारणा में इसके निम्न अर्थ माने गये हैं- जैसे • आवास, स्थान अथवा मर्यादित भू-भाग • ग्रहण करने योग्य वस्तु • स्वामी या अधिकारी व्यक्ति की अनुमति लेकर वस्तु का उपयोग करना • अधिकृत वस्तु और क्षेत्र आदि। यहाँ अवग्रह का तात्पर्य गृहस्थ की अनुमतिपूर्वक स्थान आदि ग्रहण करने से है। 1 अवग्रह के प्रकार आचारांग टीका में अवग्रह छह प्रकार का बताया गया है - 1. नाम अवग्रह 2. स्थापना अवग्रह 3. द्रव्य अवग्रह 4. क्षेत्र अवग्रह 5. काल अवग्रह और 6. भाव अवग्रह। 1. नाम अवग्रह- किसी भी सचित्त- अचित्त वस्तु की संज्ञा अर्थात नाम 'अवग्रह' हो वह नाम अवग्रह है। जैसे आचारांग के सोलहवें अध्ययन का नाम 'अवग्रह प्रतिमा' है। 2. स्थापना अवग्रह- अवग्रह की आकृति या उसकी कल्पना स्थापना अवग्रह है।
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy