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________________ जैन मुनि के सामान्य नियम...75 (iv) देशविज्ञान-विभिन्न देशों के लौकिक और लोकोत्तर आचार व्यवहार का ज्ञान नहीं हो सकता है। (v) आज्ञाविराधना-आगम वचन खण्डित होता है। निम्न कारणों के उपस्थित होने पर साधु-साध्वी एक स्थान पर एक महीने से अधिक ठहर सकते हैं___ (i) कालदोष-दुर्भिक्ष आदि पड़ जाये या दूसरी जगह आहार मिलना मुश्किल हो जाए। (ii) क्षेत्रदोष-संयम आराधना हेतु अनुकूल स्थान न मिल पाये। (iii) द्रव्यदोष-दूसरे क्षेत्र के आहारादि शरीर के प्रतिकूल हों। (iv) भावदोष-अस्वस्थता या ज्ञान आदि की हानि हो रही हो। 10. पर्युषणा कल्प ____ आषाढ़ शुक्ला चतुर्दशी से कार्तिक शुक्ला चतुर्दशी तक चार महीने एक स्थान पर रहना पर्युषणा कल्प है। यह आचार धर्म प्रथम एवं अन्तिम तीर्थंकरों के साधुओं के लिए है, मध्यम तीर्थंकरों के साधुओं के लिए नहीं है। उनके द्वारा यदि दोष न लगे तो एक क्षेत्र में पूर्व करोड़ वर्षों तक भी रह सकते हैं। ___ उक्त दस कल्प विभिन्न तीर्थंकरों के साधुओं की योग्यता के अनुसार स्थित (नियत) और अस्थित (अनियत) ऐसे दो प्रकार के होते हैं। प्रथम एवं अन्तिम तीर्थंकरों के साधुओं के लिए सभी कल्प स्थित होते हैं और मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकरों के साधुओं के लिए इनमें से छह कल्प- 1. अचेलक 2. औद्देशिक 3. प्रतिक्रमण 4. राजपिण्ड 5. मासकल्प और 6. पर्युषण अस्थित होते हैं शेष चार कल्प स्थित होते हैं। - यहाँ यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जब सभी तीर्थंकरों के साधुसाध्वियों का मूल लक्ष्य निर्वाण पद की उपलब्धि है तब प्रथम एवं अन्तिम और बाईस तीर्थंकरों के आचार में भेद क्यों? कल्पसूत्र टीकानुसार इसका समाधान यह है कि प्रथम तीर्थंकर के साधु-साध्वी ऋजु जड़ तथा अन्तिम तीर्थंकर के साधु-साध्वी वक्र जड़ होते है जबकि मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकरों के साध-साध्वी तीक्ष्ण बुद्धिमान और अत्यन्त सरल होते हैं। इस प्रकार आचार भेद का मुख्य कारण स्वभाव की विचित्रता है।
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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