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________________ 74...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन तीर्थंकर के काल में चार महाव्रत होते हैं इसे चातुर्याम धर्म कहते हैं। चातुर्याम एवं पंचयाम का भेद बहिर्दृष्टि से है। मध्यमवर्ती तीर्थंकरों के साधु बुद्धिमान् होने के कारण ब्रह्मचर्य महाव्रत को अपरिग्रह महाव्रत के अन्तर्भूत स्वीकार करते हैं। यह कल्प सभी तीर्थंकर के साधुओं के लिए नियमित रूप से पालने योग्य है। 7. ज्येष्ठ कल्प ___महाव्रतों का आरोपण करना उपस्थापना कहलाता है। प्रथम एवं अन्तिम तीर्थंकर के शासन में उपस्थापना (बड़ी दीक्षा) में जो साधु बड़ा होता है वही ज्येष्ठ माना जाता है। मध्यम तीर्थंकरों के शासन में सामायिक चारित्र की दीक्षा से उनकी ज्येष्ठता मानी जाती है। 8. प्रतिक्रमण कल्प स्वकृत पापों की आलोचना करना प्रतिक्रमण है। प्रथम एवं अन्तिम तीर्थंकर के साधुओं के लिए यह नियम है कि उनके द्वारा अतिचार लगे या नहीं उन्हें उभय संध्याओं में प्रतिक्रमण करना आवश्यक है, जबकि मध्यम तीर्थंकरों के साधुओं के लिए दोष लगने पर प्रतिक्रमण करना अनिवार्य कहा गया है। यदि कोई दोष न लगे तो ऋजु प्राज्ञ होने से प्रतिक्रमण करना जरूरी नहीं है। 9. मास कल्प चातुर्मास या किसी अन्य कारण के बिना एक स्थान पर एक मास से अधिक नहीं रहने का आचार मासकल्प कहलाता है। प्रथम एवं अन्तिम तीर्थंकर के साधुओं के लिए यह विधान है कि वे चातुर्मास या अन्य विशेष कारण के बिना एक स्थान पर महीने से अधिक नहीं ठहर सकते, किन्तु मध्यवर्ती तीर्थंकरों के साधु-साध्वी एक महीने से अधिक भी रह सकते हैं क्योंकि वे सरल स्वभावी और तीव्र बुद्धिशाली होते हैं। मासकल्प का पालन न करने से निम्न दोष लगते हैं(i) प्रतिबद्धता-शय्यातर आदि के प्रति राग-भाव उत्पन्न होता है। (ii) लघुता-यह साधु अपना घर छोड़कर दूसरे घर में आसक्त है, ऐसी शंका से लोक में लघुता होती है। __ (iii) जनोपकार-भिन्न-भिन्न प्रान्तों में रहने वाले लोगों का उपदेश आदि देकर उपकार नहीं किया जा सकता है।
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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