SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 261
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपस्थापना (पंचमहाव्रत आरोपण) विधि का रहस्यमयी अन्वेषण... 199 विपरीत हवा में भी उसी तरह से बहती है जैसी प्रवाह में बहती है । उसमें यह भी कहा है यदि किसी को स्वर्ग के उच्च स्थल पर पहुँचना हो तो ब्रह्मचर्य के समान अन्य कोई सीढ़ी नहीं । निर्वाण नगर में प्रवेश करना हो तो इसके समान कोई द्वार नहीं। इस प्रकार के बहुत से उद्धरण उल्लिखित किये जा सकते हैं। निःसन्देह भारतीय संस्कृति की सभी धाराओं में ब्रह्मचर्य का सर्वोच्च स्थान रहा है। जैनागम का प्राथमिक ग्रन्थ आचारांग का अपर नाम 'ब्रह्मचर्याध्ययन' है। इसमें तीर्थङ्करों द्वारा प्रतिपादित प्रवचन के सार का अध्ययन किये जाने से उसे ब्रह्मचर्य अध्ययन कहा है। इससे परिज्ञात होता है कि मोक्ष प्राप्ति के लिए आवश्यक सभी सद्गुणों एवं चर्याओं का समावेश ब्रह्मचर्य में हो जाता है। आचारांगनिर्युक्ति में कथन भी है कि ब्रह्मचर्य में सारे मूलगुण एवं उत्तरगुण समाविष्ट हैं। 93 ब्रह्मचर्य महाव्रत की सुरक्षा के उपाय - उत्तराध्ययनसूत्र में ब्रह्मचर्य के रक्षणार्थ निम्न स्थानों से बचने का निर्देश दिया गया है। इन्हें ब्रह्मचर्य के दस समाधिस्थान कहा गया है। 1. स्त्री, पशु और नपुंसक जिस स्थान पर रहते हों, श्रमण वहाँ न ठहरे 2. श्रमण श्रृंगाररसोत्पादक स्त्री-कथा न करे 3. श्रमण स्त्रियों के साथ एक आसन पर न बैठे 4. स्त्रियों के अंगोपांग को राग-भाव से न देखे 5. वसति के आस-पास से आते हुए स्त्रियों के कुंजन, गायन, हास्य, रुदन और विरहयुक्त शब्दों को न सुने 6. गृहस्थावस्था में भोगे हुए भोगों (कामजन्य क्रीड़ाओं) का स्मरण न करे 7. पौष्टिक (गरिष्ठ) आहार न करे 8. मर्यादा से अधिक भोजन न करे 9. शरीर का शृंगार न करे 10. इन्द्रियों के विषयों में आसक्त न बने 1 94 मूलाचार में अब्रह्मचर्य के निम्न दस स्थान बताये गये हैं, जो जैन श्रमण के लिए त्याज्य हैं - 1. अधिक आहार करना 2. शरीर का शृंगार करना 3. गन्धमाल्य धारण करना 4. गाना-बजाना 5. उच्च शय्या पर शयन करना 6. स्त्रीसंसर्ग करना 7. इन्द्रियों के विषयों का सेवन करना 8. पूर्वभोगों का स्मरण करना 9. कामभोगों की सामग्री का संग्रह करना और 10. स्त्री - सेवा करना । वस्तुतः उपर्युक्त प्रसंगों का उल्लेख ब्रह्मचर्य की रक्षा के निमित्त ही किया गया है। सामान्य नियम तो यह है कि भिक्षु को जहाँ भी अपने ब्रह्मचर्य महाव्रत के खण्डन की सम्भावना प्रतीत हो, उन सभी स्थानों का उसे परित्याग कर देना चाहिए। 25
SR No.006241
Book TitleJain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy